Menu
blogid : 5215 postid : 647918

मीडिया में महिला खबरें गौण

सरोकार
सरोकार
  • 185 Posts
  • 575 Comments

मीडिया अपनी मिशन की यात्रा करते हुए आज कालपनिक दुनिया का सफर तय करने लगा है। जिसमें हर चीज कल्पना के इर्द-गिर्द घुमती हुई दिखाई देती है। कालपनिक दुनिया ने जैसे हमारे सीमित उपयोगितावादी चेतना तंत्र को मानो डंस लिया है। जिसका जहर हम सब की रगों में खून बनकर दौड़ता मालूम पड़ता है। वैसे मीडिया इस कालपनिक दुनिया का सहारा लेकर हमारे समाज में वेश्या जैसी भूमिका निभाता हुआ प्रतीत होता है। जिसको न तो अपयाना जा सकता है और न ही तिरस्कार। हालांकि व्यापक समाज किसी भी तंत्र के प्रति निर्विकार रह सकता है, परंतु यदि उसमें सभ्य आचरण की अंतरंगता को विज्ञापनी व्यावसायिकता में तब्दील करके सभ्य संभोग का प्रस्तुतिकरण करके दिखाए जाने के उपरांत यदि वह उत्तेजित हो उठता है, तो इसमें स्वार्थ या पाखंड का मूल तत्त्व विराजमान है। इस तत्त्व का बचाव यह कह कर नहीं किया जा सकता कि यह बुराई तो एक आदिम बुराई है और मीडिया एक आधुनिक घटना, जिससे यह उम्मीद नहीं की जाती कि वह इस अश्लीलता को प्रोत्साहित या सहन करेगा। तनिक-सा गौर करते ही यह स्पष्ट हो जाएगा कि जहां तक स्त्री का ताल्लुक है, तथाकथित आदिम और तथाकथित आधुनिक दृष्टियों में कोई बुनियादी फर्क नजर नहीं आता है। साथ ही यह भी कि संगठित इस तंत्र के जन्म के पीछे जो व्यावसायिक दबाव थे, वही दबाव आज मीडिया में देखने को मिल रहे हैं। क्योंकि अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि यही व्यावसायिकता कहीं-न-कहीं मीडिया उद्योग की भी प्राणवायु बन चुकी है।
वैसे मीडिया में सभी तरह की खबरों का समावेश देखने को मिलता है, परंतु मीडिया में प्रकाशित/प्रसारित खबरों में स्त्री हमेशा गुम रही है। क्योंकि उसे सार्वजनिक जीवन से बाहर रखा गया है। फिर भी स्त्रियों के साथ चूंकि बहुत कुछ ऐसा घटित होता रहता है जिससे हमारी यथास्थितिवादी चेतना को भी धक्का पहुंचता है। अतः स्त्रियों को मीडिया में लाना जरूर हो जाता है। लेकिन अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि वे स्त्रियों से संबंधित खबरें नहीं हैं। वे भी पुरुषों की ही खबरें हैं-उन पुरुषों की खबरें, जिन्होंने स्त्रियों के साथ कुछ अमान्य आचरण किया है। मसलन दहेज के लिए प्रताडित, हत्या, छेड़छाड़, बलात्कार, नारी देह का प्रदर्शन आदि, जो पुरुष ने किया है और वह स्त्री के साथ हुआ है। वैसे उसके लिए कोई नाम तक नहीं है हमारे पास। इससे पता चलता है कि घटनाओं के बयान करने वाली हमारी शब्दावली तक कितनी नकाफी है।
अब प्रश्न यह उठता है, कि स्त्रियों से संबंधित खबरें क्या हो सकती है? ये खबरें वही हो सकती हैं जिसके केंद्र में स्त्री यानी उसकी स्थिति, उसकी समस्याएं और उसकी सक्रियता हो। हालांकि स्त्री की ऐसी सक्रियता बहुत कम ही है जो खबरों का रूप ले सके। यह एक ऐसा पहलू है, जिस पर स्त्रियों को गइराई से विचार करने की आवश्यकता है। क्योंकि पुरुष सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे हैं अथवा उसका दुरूपयोग कर रहे हैं, इसलिए वे हमेशा खबरों के केंद्र में आ जाते हैं। इस संघर्ष रणनीति में स्त्री नहीं के बराबर मौजूद हैं और जितनी है भी, वह चर्चा का विषय बनती ही है। इसलिए सीमित होने के कारण स्त्री के अपने संघर्ष मीडिया में प्रतिबिंबित नहीं होते। इसका कारण यह यथास्थितिवादी सोच ही है कि स्त्रियां मौजूद सत्ता संतुलन को छेड़ कर जैसे कुछ अनैतिक काम कर रही हैं। इस मामले में उनकी हैसियत आदिवासियों या हरिजनों से भी गई-गुजरी है।
वस्तुतः यह है कि स्त्री को लगातार हजारों कामुक निगाहों का सामना करना पड़ता है। घर, बाहर लगातार उसे स्त्री होने का दंड भोगना पड़ता है, तो क्या यह बात मीडिया में प्रकाशित/प्रसारित करने लायक है-उस मीडिया में, जो स्वयं इस प्रक्रिया से पूरी तरह बरी नहीं हो पाया है? कौन-सा अपराध संवाददाता इन छोटी-छोटी, किंतु गंभीर घटनाओं की दैनिक सूची बनाता है? वैसे स्त्री के सभी मौलिक अधिकार, जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या जहां इच्छा हो वहां जाने का अधिकार तो हमेशा निलंबित रहते हैं, तो मीडिया में किस-किसका उल्लेख किया जाए? निश्चय ही बहुत सारी खबरें इसलिए खबरें नहीं बन पाती हैं क्योंकि वे हमारी दिनचर्या का अंग बन चुकी होती हैं। तो क्या स्त्री की नियति बदलने में मीडिया के सभी जनसंचार माध्यमों की ओर से हमें बिल्कुल निराशा ही हाथ लगने वाली है? क्या यह मान लेना चाहिए कि मीडिया स्त्री की उपेक्षा या स्त्री विरोध के लिए अभिशप्त हैं, अतः वह इस वर्ग के लिए कुछ कर नहीं सकता?
इस लेख के कुछ अंश राजकिशोर द्वारा लिखित पुस्तक ‘पत्रकारिता के नए परिप्रेक्ष्य से लिए गए हैं। राजकिशोर जी सभार…….

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh