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सोच – महिलावादी

सरोकार
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वर्तमान परिप्रेक्ष्य में नारी विकास की बात अधिकार प्राप्ति से जोड़ना तब तक खोखली लगती है जब तक नारी पर चर्चा न कर ली जाए। क्योंकि कत्र्तव्य के बिना अधिकार प्राप्ति सम्मान नहीं दिला पाता। महिला संगठनों व महिलाओं को अगर अपने अधिकारों की स्वीकृति समाज से चाहिए तो उन्हें अपने कर्तव्यों पर भी चर्चा करनी होगी। ये कत्र्तव्य कैसे होगें? इसका निर्धारण वर्तमान हालात कर सकते हैं। पुरुष समाज को भी वर्तमान हालात में महिलाओं की मांग स्वीकारना होगा तथा महिलाओं के मतानुसार उनके द्वारा निर्धारण किए जाने वाले कर्तव्य पर यथा उचित मोहर भी लगानी होगी। महिलावादी समाज उपयुक्त वाक्यों से सहमत नहीं भी हो सकती है क्योंकि उन्हें पुरुषों से स्वीकारोक्ति लेना स्वीकार्य नहीं है। लेकिन यह केवल सिद्धांत स्तर पर ही है क्योंकि आधी आबादी पुरुषों की भी है। अतः पुरुषों की सहमति आवश्यक है। महिलावादी समाज सबसे पहले महिला के कर्तव्य पर चर्चा करे फिर अधिकार की बात करे तो महिला समाज से ज्यादा पुरुष समाज महिला अधिकारों का पक्षधर होगा।
महिलावादी समाज की प्रमुख मांग है उनके अस्तित्व और देह पर केवल उन्हीं का निर्णय व अधिकार हो। लेकिन इस अधिकार की मांग करने में महिलावादी संगठन चूक कर जाते हैं। वह निरंकुशता के साथ अपनी मांगों को मनवाना चाहते हैं जबकि वर्तमान समय लोकतंत्र का है। महिलावादी संगठन महिला विकास की बात करते हैं लेकिन उनके कार्यों से ऐसा लगता है कि वो पांच-दस सालों में ही महिला को विकसित बनाने का स्वप्न देख रही है। उनका यह स्वप्न देखना बुरा नहीं है बस स्वप्न को असलियत में बदलने की प्रक्रिया अप्रसंगिक है। क्योंकि विकास एक प्रक्रिया है जिसमें काफी लंबा समय लगता है। सदियों के फासले पांच-दस सालों में तय कर पाना व्यवहार की दुनिया में संभव नहीं दिख पाता। अधिकारों की स्वीकृति समाज की प्रकृति पर भी निर्भर करती है। पश्चिम का समाज और भारतीय समाज में काफी अंतर है। पश्चिम समाज के विकास और भारतीय समाज के विकास की यात्रा भी अलग-अलग है। प्रत्येक समाज अपनी जरूरत के हिसाब से कानून बनाता है। भारतीय समाज में प्राचीन काल में जो कानून बने वह निश्चित तौर पर वर्तमान महिलावादी समाज को असहज बनाता है लेकिन समाज में परिवर्तन स्वाभाविक रूप से होते रहते हैं। अगर वर्तमान नारीवादी समाज अपने कत्र्तव्यों के माध्यम से यह साबित कर दे कि भारतीय समाज का विकास तभी संभव है जब महिला को महिला से संबंधित सभी अधिकार प्राप्त हों। तब समाज स्वतः ही महिला को यह अधिकार दे देगा, लेकिन अगर महिलावादी विचारधारा ने पश्चिमी समाज का उदाहरण देकर भारतीय समाज को बदलने के लिए मजबूर करने की कोशिश की, जो कि वर्तमान महिलावादी समाज कर रहा है तो ऐसे समय में समाज इसकी इजाजत बिलकुल नहीं देगा। क्योंकि तुलना का कोई आधार नहीं है।
वैसे भी स्वाभाविक है कि अगर आप किसी को किसी की तुलना में कमतर आंकते हैं तो प्रथमतः वह व्यक्ति या समाज अपनी प्रतिष्ठा पर इसे आघात मानता है। क्योंकि प्रत्येक समाज ने एक लंबा सफर तय किया है और फिर उसे कमतर बताया जाना वो भी निरंकुशता के साथ समाज कभी स्वीकार नहीं करेगा। अतः महिलाओं को यह चाहिए कि भारतीय समाज को विदेश समाज से तुलना न करें। भारतीय समाज में ही रहकर भारतीय समाज के विकास की बात करके भारतीय समाज को यह एहसास दिलाए कि अब महिलाओं के कंधे पुरुषों के साथ मिलकर काम करने के लायक हो चुके हैं। तब भारतीय समाज इस बात को नजरअंदाज नहीं कर सकेगा। अगर महिलाओं को अपने अधिकारों मिल भी जाते हैं तो क्या उनकी समाज में व पुरुषों के मुकाबले बराबर की प्रतिष्ठा कायम करने में क्या वो सफल हो पाएंगी? यह शोध का विषय हो सकता है।
वैसे आधुनिकता, उत्तराधुनिकता और विकास के परिप्रेक्ष्य में महिलावादी संगठनों ने एक खाका बना रखा है पुरूषों के विरूद्ध। जिस खाके की रूपरेखा हमेशा से ही पश्चिमी सभ्यता से ओतपोत रही है और यह सभ्यता हमेशा से पुरूषों के विरूद्ध, पुरूषों को गरियाने का काम करती आई है। जिसने आज मुखर रूप अख्तियार कर लिया है। वैसे महिलावादी संगठनों ने जहां एक ओर महिलाओं को अधिकार दिलाने की पुरजोर वकालत की, वहीं उसने कहीं न कहीं भारतीय संस्कृति को दूषित भी किया है। जिसको वह अपना अधिकार मानने लगी है्ं। परंतु अपने अधिकारों की चकाचैंध ने उन्हें इस प्रकार अंधा कर दिया है कि वह यह मानने को कदापि तैयार नहीं है कि, संस्कृति को दूषित करने में वो भी जिम्मेदार है। तभी वो आज अश्लीलता की पराकाष्ठा अपने चरम को भी पार कर चुकी है। हालांकि मैं इस बात के पक्ष में बिलकुल नहीं हूं कि कपड़ों के पहनावे से अश्लीलता बढ़ती हो, हां इस बात के विपक्ष में जरूर हूं कि पहनावे की महिलावादी रणनीति इसका कारण हो सकती है। वैसे महिलाओं के अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना और अधिकार की मांग जायज ही है परंतु नग्नतापूर्ण अधिकारों की मांग कहा तक जायज है यह तो महिलावादी नारियां ही इसे उचित तरीके से परिभाषित कर सकती हैं।
इतिहास के पन्नों को पलटा जाए तो ज्ञात होता है कि पहले हमारी सभ्यता मातृ सत्तात्मक थी। चाहे कबीले हो या समुदाय, हर जगह महिलावर्ग ही हावी था। यानि पूरी सत्ता का दरोमदार महिलाओं के हाथ में था। धीरे-धीरे विकास व सभ्यता का मापदंड बदलता गया और शारीरिक तौर पर कमजोर तथा उचित निर्णय न ले पाने की क्षमता के कारण महिलाओं की सत्ता को पुरूषों ने अपने हाथों में ले लिया। ताकि अपने कबीले व समुदाय की बाहरी लोगों से रक्षा कर सकें। फिर भी अधिकांशतः कामों में महिलाओं की सत्ता काम करती रही। हालांकि वक्त और सभ्यता के परिवर्तन के साथ-साथ इस सत्ता पर भी पुरूष वर्ग काबिज होता गया। और पुरूष वर्ग ने पूरी सत्ता पर अपना एकाधिकार स्थापित कर लिया। एकाधिकार स्थापित करने के उपरांत हम देख सकते हैं कि विकास की आधारशिला की नींव भी पुरूषों के कंधों पर ही रखी गई, तब जाकर सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ। इस सभ्यता और सस्कृति के विकास पर न जाने कितनी पीढियों का हाथ है यह सब इतिहास के पन्नों में कहीं धूल खा रहा होगा। फिर भी विकास की पृष्ठभूमि का मूल आधार पुरूषों ने ही बनाया है इसमें कोई दोमत नहीं है।
फिलहाल महिलाओं के अधिकारों और उत्पीड़न की बात करें तो आज के परिप्रेक्ष्य में स्थिति विकट तो नजर आती है पर उतनी नहीं, जितना यह महिलावादी स्त्रियां इसको बढ़ा-चढ़ाकर प्रदर्शित करने का प्रयास करती हैं। वैसे मैं इस बात को एक सिरे से नकार नहीं रहा हूं कि पुरुषों द्वारा महिलाओं का शोषण सदियों से चला आ रहा है और वर्तमान समय में भी यह लगातार जारी है। परंतु इसके मूल के प्रमुख कारणों को किसी ने खोजने की बिलकुल भी कोशिश करना मुनासिब नहीं समझा, कि वो मूल कारण क्या थे जहां से उत्पीड़न के सिलसिले की शुरूआत हुई। जिसने धीरे-धीरे विकराल रूप धारण कर लिया। मेरे नजरिए से शायद इसके पीछे महिलावादी संगठनों की विकृत सोच इसका मूल कारण हो सकते हैं। वैसे यह विकृत सोच महिलाओं को उनका अधिकार और सम्मान दिलाने की तुलना में उसे और पश्चिमी सभ्यता के चंगुल में फंसाने का काम कर रही हैं। तभी तो वर्तमान संदर्भ को मुख्य उदाहरण के तौर पर देखा जा सकता है कि किस प्रकार महिलाएं बाजार की वस्तु बनती जा रही हैं, वो भी अपनी स्वेच्छा से। यह सब भारतीय सभ्यता की देन नहीं अपितु, पश्चिमी सभ्यमा की चकाचैंध का नतीजा है जिससे मोहित होकर आज की महिलाएं यह भूल गई हैं कि भारतीय संस्कृति और सभ्यता भी उनके जीवन में कोई मायने रखती है।
हालांकि महिलावादी संगठन हमेशा से यह कहते हुए देखे जा सकते हैं कि पुरुष समाज ने उसे बाजार की वस्तु बना दिया है। उसे इंसान के रूप में नहीं, मात्र देह के रूप में देखा जा रहा है। वस्तुतः यहां यह कहा जाए कि ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती, तो मेरे हिसाब से गलत नहीं होगा। इसको विभिन्न रूपों में महिलावादी संगठन खुद परिभाषित करके देखें तो स्थिति स्वतः साफ होती दिखाई देने लगेगी? यदि चाहे तो वह खुद ही विश्लेषण करें कि हवा का रूख कहां से परिवर्तित हुआ? तो महिलावादी संगठनों और महिलाओं के लिए ज्यादा बेहतर होगा। किसी के विपक्ष में अंगुली उठाने से पहले उन्हें यह बात कदािप नहीं भूलनी चाहिए कि तीन अंगुलियां उनकी तरफ भी ठीक उसी समय उठ जाती हैं, जब वो किसी की तरफ अंगुली उठते हैं।
वस्तु, बाजार, देह, अश्लीलता, प्यार के नाम पर शारीरिक संबंध क्या इनकों बढ़ावा सिर्फ और सिर्फ पुरुष दे रहे हैं? क्या इनमें महिलाओं की कोई भूमिका नहीं? क्या महिलावादी संगठन स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं को बाजार की वस्तु बनने के लिए प्रेरित करते हुए नजर नहीं आते। आंख मूद कर गरियाना हो तो किसी को भी, किसी भी वक्त गरियाया जा सकता है। फिर चाहे वो पुरुष समाज क्यों न हो। लोग तो पीठ पीछे भगवान को भी नहीं छोड़ते, फिर तो यह पुरुष ठहरे। एक ने कहा ऐसा; तो भीड़ की जमात में सब शामिल हो जाते हैं। तर्क-विर्तक करने की क्षमता तो रही नहीं, बस कूर्तक करते रहते हैं। करिए कूर्तक ही सही, आप स्वतंत्र हैं? क्योंकि आधी आबादी आपकी भी है, परंतु अच्छे-बुरे को ध्यान में रखकर। क्योंकि आप जैसा बोएंगे वैसा ही आने वाली पीढ़ी को दे सकते हैं। कहीं ऐसा न हो कि आने वाली पीढ़ी आपको मुंह चिढ़ाती हुई नजर आए और आप सिर्फ ढोल पीटते रहे जाए…….

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