Menu
blogid : 5215 postid : 296

दास्तान-ए-महिला उत्पीड़न

सरोकार
सरोकार
  • 185 Posts
  • 575 Comments

‘बेटी’ शब्द जिसका नाम सुनते ही अधिकांश लोगों के चेहरे की हवाईयां उड़ जाती हैं, मानों कोई बुरी ख़बर से पाला पड़ गया हो? यह तो मात्र नाम का ही प्रभाव है। अगर वास्तविकता के धरातल पर बात करें तो किसी के घर में बेटी के जन्म लेते ही (वो भी पहली) उस घर में मातम-सा छा जाता है। जैसे उसके घर में कोई जनमा नहीं, अपितु कोई मर गया हो। वहीं बच्ची को जन्म देने वाली बेबस मां और अबोध बच्ची दोनों के साथ बुरा बर्ताव देखने को मिलने लगता है। जैसे बच्ची के जन्म लेने से उस घर के ऊपर कोई मुसीबत का पहाड़ गिर पड़ा हो, और सारी-की-सारी गलती उस जन्म देने वाली मां पर थोप दी जाती है। जिसकी कहीं कोई गलती नहीं होती। इसके बाद भी उससे कहा जाता है कि बेटी को जना है तूने, अब खुद संभाल इसको। और छोड़ देते हैं दोनों को अपने हाल पर। न कोई चिंता, न ही फिकर, मरे चाहे जीए। यह किसी एक घर की दास्तान नहीं, बल्कि पूरे समाज में फैली एक कुबुराई है जिसे लोगों आज भी अपने समाज में जिंदा किए हुए हैं। क्योंकि यह विकृत समाज की सोच का ही नतीजा है जिसकी झलक आज भी देखने को मिल रही है।
जैसा कि विदित है कि भारत के कुछ राज्यों में यह स्थिति और भी भयावह रूप में हमारे समक्ष दिखाई देती है। जहां बेटी के पैदा होते ही मार देने की परंपरा अब भी मौजूद है। कभी दूध के टब में डुबोकर, कभी अफीम खिलाकर, तो कभी तकीए से उसका गला दबाकर या फिर जन्म देने वाली दाई को चंद रुपए देकर मारवा दिया जाता है। वैसे यह कु-प्रथा भारत के उन राज्यों में आज भी अधिक प्रचलित है। जहां सदियों से बेटियों को बेटों के कमतर समझा जाता है। वहीं सभ्य परिवारों व शिक्षित समुदाय की बात करें तो वहां स्थिति कुछ ठीक-ठाक है बस ठीक-ठाक। क्योंकि सभ्य और शिक्षित लोग बच्ची को पैदा होते ही नहीं मारते अपितु, उस बच्ची को पैदा ही नहीं होने देते। मां के गर्भ में ही लिंग का पता लगाकर मारवा देते हैं।
इस संदर्भ में आगे बात करें तो पहले और दूसरे समाज में मात्र एक ही असमानता दिखाई देती है कि पहला समाज पैदा होने के बाद तो दूसरा पैदा होने से पहले, और समानता यह कि, बच्ची को मारना ही है। चाहे जैसे भी हो, यदि बच्ची पैदा हुई है या होने वाली है उससे पहले ही उसका नामों-निशान मिटा देते हैं, अपने परिवार से। हां कुछ लोग पहली बच्ची के पैदा होते ही कुछ कारणों से बच्ची को नहीं मारते, क्योंकि वह यह सोचकर सब्र कर लेते हैं कि चलो दूसरा बेटा होगा। अगर फिर बेटा नहीं हुआ बेटी ही हुई तो उसके साथ भी वो ही किया जाता है जो अधिकांश लोग करते हैं या करते आ रहें हैं। वैसे यह किसी राज्य या किसी तबके, समुदाय, जाति की बेटियों के साथ घटित होने वाली घटना नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज की बेटियों की मार्मिक दास्तान है। जिसके आंकड़े हम सरकार की रिपोर्टों और मीडिया में प्रसारित ख़बरों के माध्यम से अंदाजा लगा सकते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के अनुपात की वास्तविक स्थिति क्या है।
वैसे बेटियों के साथ घटित घटनाओं की दास्तान इसके अलावा कुछ और भी कहानी बयां करती है कि कुछ बेटियों के मां-बाप उनको पैदा होते ही नहीं मारते, तो उनके साथ परिवार के लोग खान-पान, रहन-सहन, पढ़ाई-लिखाई आदि सब में भेदभाव करते हैं। जिसके तर्क में हमेशा से यह कहा जाता है कि, आखिर जाना तो पराए घर ही है, पढ़-लिख कर क्या कलेक्टर बनेंगी? करना तो इसको झाडू-पौंछा ही है। इस तरह पग-पग पर उसकी हमेशा उपेक्षा की जाती है। इतना झेलने के उपरांत भी इन बेटियों के उत्पीड़न के सिलसिलों का अंत यहीं नहीं ठहरता, उसको या तो किसी के हाथों बेच दिया जाता है, या किसी बूढ़े के साथ उसका विवाह कर दिया जाता है। कहीं-कहीं समाज में तो छोटी उम्र में ही धर्म के नाम पर मंदिरों में दान तक कर दिया जाता है। जहां पर धर्म के पुजारी इनको भोगकर वेश्यावृत्ति के दलदल में धकेल देते हैं। जहां लोग अपनी हबस की पूर्ति हेतु इनके जिस्मों का सौदा करके, इनके जिस्मों को हर दिन रौंदते हैं। इन सब के बावजूद भी बेटियों को कभी दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता है, तो कभी आग में जलाकर मार दिया है। कभी-कभी तो बर्दास्त से बाहर हो चुकी पीड़ा से मुक्ति पाने के लिए खुद जलकर मरना पड़ता है। यह कोई सती प्रथा नहीं जहां पति की मौत के बाद समाज के दबाव में आकर पति की चिता के साथ जलना पड़ता था। जिसे सती प्रथा करते थे, परंतु अब यह प्रथा समाज से खत्म हो चुकी है इसकी जगह बहू-बेटी को जलाकर मारने की प्रथा अब मुखर हो चुकी है। और-तो-और उस दहेज की मांग पूरी न करने के एवज में पग-पग पर प्रताड़ित किया जाता है, लातों-घूसों से पति व सास-ससुर द्वारा मार-पीटा जाता है। इतने से ही हमारे समाज का बेहशीपन शांत नहीं होता, इन बेटियों के प्रति, तो समाज के ठेकेदार, विकृत मानसिक प्रवृत्ति के कुंठित लोग और-तो-और आपसी संगे-संबंधी कहीं पर तो घर के ही सदस्यों द्वारा इनके साथ बलात्कार की घटना को अंजाम दिया जाता है। जिस करण वो पूर्णतः टूट जाती है तथा समाज में मुंह दिखने के लायक नहीं बचती। वहीं समाज, बलात्कार के दोषियों को सजा दिलाने की तुलना में सारा दोष उस वेबस पीड़ित लड़की पर मड़ देते हैं। जो अपने साथ हुई बलात्कार की घटना से तिल-तिल कर मर रही है। इस प्रकार का उत्पीड़न महिलाओं के साथ होना प्रतिदिन की घटना में शुमार हो चुका है।
इतने सारे उत्पीड़न को झेलते हुए महिलाएं आज स्वयं के महिला होने पर अधिक चिंता में है, क्योंकि लोकतंत्र के चारों स्तंभ कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और यहां तक की मीडिया भी इन पर होने वाले अत्याचारों से इन्हें मुक्ति दिला पाने में नकारा साबित हो रहें है। इसका मूल कारण के पीछे सिर्फ-और-सिर्फ हमारा पुरुष प्रधान समाज ही है, तभी तो पीड़िता को कभी परिजन अपने परिवार के मान-सम्मान की खातिर, तो कभी दबंगों द्वारा डरा-धमकाकर शांत करा दिया जाता है। अगर कुछ एक महिलाएं हिम्मत करके अपने साथ हुए अत्याचारों की रिपोर्ट दर्ज करवाती भी हैं तो वहां भी उसे पुलिस द्वारा बदसलूकी का दंश झेलना पड़ता है। क्योंकि पुलिस कभी रुपयों के लालच में, तो कभी बाहुबलियों के दबाव के चलते, और-तो-और अधिकांशतः पुलिस वाले अपने क्षेत्र में होने वाले अपराधों में कमी दिखाने के चलते ऐसी प्रवृत्ति का इस्तेमाल करते रहते हैं। यदि पुलिस किसी दबाव के चलते रिपोर्ट दर्ज कर भी लेती है तो वह केस की ठीक से विवेचना करने में भी अपना ठुलमुल रवैया दिखाने से बाज नहीं आते। इसके साथ-साथ न्याय व्यवस्था में न्याय पाने के लिए उसे वर्षों अपने साथ हुए अत्याचारों के लिए चक्कर लगाने पड़ते हैं, इसके बावजूद भी न्याय मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं। क्योंकि भ्रष्टाचार हमारे समाज की रंगों में खून बनकर दौड़ने लगा है। वहीं पुलिस वाले चंद रुपयों के एवज में पूरे केस का रुख ही पलटकर रख देते हैं। बलात्कार के मामलों को छेड़छाड़, दहेज हत्या के मामलों को आत्महत्या, वेश्यावृत्ति में धकेली गई महिला का वेश्या और घरेलू हिंसा को पत्नी की बदचलनी में तब्दील करके दिखा दिया जाता है। वहीं पीड़िता महिला अपने साथ हुए अत्याचारों को बताते-बताते व न्याय की गुहार लगाते-लगाते मर जाती है और उसे न्याय नहीं मिलता।
अगर महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों को मीडिया के परिप्रेक्ष्य में देखें तो कुछ एक अपवाद स्वरूप मामलों को छोड़कर लगभग सभी मामलों को वह केवल-और-केवल सनसनीखेज़ ख़बरों के रूप में इनका इस्तेमाल करता है यानि प्रकाशित/प्रसारित करने का काम करता है। बहुत बार तो यहां तक देखने को मिलता है कि मीडिया महिलाओं के साथ हुए अत्याचारों को, खासतौर से बलात्कार संबंधी मामलों को कालपनिक दृश्यों के रूप में बार-बार दिखाने का काम करता है, यानि उस महिला के साथ मीडिया भी बार-बार बलात्कार की घटना को अंजाम देता है। क्योंकि बलात्कारी उस महिला के साथ शारीरिक बलात्कार करता है तो मीडिया उस महिला का मानसिक बलात्कार करता है। वैसे यह बात गलत नहीं है कि मीडिया महिलाओं के साथ हुए शोषण व अत्याचारों को एक ख़बर के रूप में देखता है कि चलो एक अच्छी ख़बर तो हाथ लगी। जिस ख़बर से को बार-बार दिखाने से हमारे चैनल की टीआरपी तो थोड़ी बढे़गी। और अगर हम पीड़िता को न्याय दिलाने की बात करें तो यह इनसे परे की बात है। क्योंकि यह सिर्फ-और-सिर्फ शहरी और बड़े वर्ग या यहां भी कहना गलत नहीं होगा कि यह सिर्फ धनाढ्य वर्गों और उच्च जाति की महिलाओं के साथ हुए शोषण की ख़बरों को ही ज्यादा तबज्जों देते हैं, उसको न्याय दिलाने के लिए ख़बरों का लगातार फोलोअप भी करते रहते हैं। ताकि पुलिस व प्रशासन पर दबाव बनाकर जल्द-से-जल्द दोषियों को सजा दिला सकें। क्योंकि वह पीड़ित महिला उच्च व धनाढ्य वर्ग से तालुक रखती हैं। वहीं गरीब तबके और छोटी जाति की महिलाओं के साथ हुए अत्याचार व शोषण से इनको कोई सरोकार नहीं होता, क्योंकि वह इनके लिए न तो ख़बर का काम नहीं करती है और न ही वर्ग विशेष का। वैसे अब मीडिया भी इन महिलाओं का उत्पीड़न करने लगा है। जिसका उदाहरण हम आए दिन पूरे मीडिया में देखते रहते हैं कि किस तरह वह उद्योगपतियों द्वारा निर्मित किसी भी वस्तु को बाजार में बेचने के लिए महिलाओं का इस्तेमाल करता रहता है, वो भी उसको अर्द्धनग्न करके, कभी-कभी तो पूर्णतः नग्न करके। इस नग्नता भरे विज्ञापनों को वह समाज के सामने परोस देता है। जिसको देखकर हमारा पुरुष महिलाओं को सिर्फ कामुक व भोग्या की दृष्टि मात्र से देखने लगते हैं। जिससे कहीं-न-किसी महिलाओं को अपनी अस्मत लूटने का खतरा बना रहता है।
अतः में महिला उत्पीड़न की पूरी दास्तांन पर प्रकाश डाला जाए, और महिलाओं की स्थिति का आंकलन किया जाए, तो वास्तविक स्थिति हमारे सामने स्वतः ही आ जाएगी कि, महिलाओं को पहले तो पैदा ही नहीं होने दिया जाता, यदि पैदा हो भी गई तो पुरुष प्रधान समाज द्वारा उसके पग पर इतने कांटें बो दिए जाते हैं ताकि वह पुरुष प्रधान समाज के समतुल्य खड़ी न हो सके और उसकी ता-जिंदगी लहुलुहान तरीके से ही व्यतीत हो। तभी तो वह बार-बार सिर्फ यही कहने को मजबूर होती है कि ‘‘अगले जनम मोहे बिटिया न कीजों’’।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply to aksinghCancel reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh