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हे बलात्कारी पुरुष

सरोकार
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हमारे समाज और पुरुष वर्ग के बीच से ही उत्पन्न यह अजीमोंशान कामांध व्यक्तित्व के धनी, ये चंद लोग जिनकी संख्याओं में लगातार इजाफा होता जा रहा है। जिनकी हिम्मत की मैं दाद देना चाहता हूं, क्योंकि इन चंद लोगों की कारगुजारियों से समाज व हमारा मीडिया, हम सब को प्रतिदिन रूबरू करवाता रहता है कि फलां व्यक्ति ने आज बलात्कार किया। कितना अच्छा काम है बलात्कार करना? वो भी बिना किसी रोक-टोक के, बिना किसी भय के। वैसे इन बलात्कारियों की कोई अलग से पहचान नहीं होती, कि फलां व्यक्ति बलात्कारी है या हो सकता है। यह तो हम और आप के बीच में रहने वाला इंसान ही है जो मात्र अपनी हवस व शारीरिक पूर्ति को पूरा करने के एवज में चाहे वह नाबालिग बच्ची हो या वृद्धा, उसे अपना शिकार बना लेता है। उसे वह नोचता है, खसोटता है और पूर्ण पुरुष होने का प्रमाण देता है। वहीं पीड़िता के हाल की मत पूछो और पूछने से फायदा ही क्या। क्योंकि उसके दर्द को हम सब महसूस नहीं कर सकते। अगर पूछना है तो उस बलात्कारी से पूछो, कि उसके अंदर कैसे बलात्कार करने की प्रवृत्ति ने जन्म लिया। यह अचानक उत्पन्न हुई या फिर इस कृत्य को करने की वह पहले से ही रणनीति अपने कुंठित मस्तिष्क में बना चुका था। जिसके बाद वह केवल मौके की फिराक में था कि कब मौका हाथ लगे और मैं बलात्कार को अंजाम दूं। बलात्कार को अंजाम देने के उपरांत इन बलात्कारियों पर शोध करने की आवश्यकता है, कि बलात्कार करने के बाद वह कैसा महसूस करते हैं? और पीड़िता के बारे में उसके क्या विचार शेष हैं। क्या वह दुबारा बलात्कार करने के इच्छुक है, इसके साथ-साथ इस बात का भी अध्ययन करने की मुख्य रूप से जरूरत है कि ऐसे कौन-से हालात उत्पन्न हुए जिस कारण से उसे बलात्कार करने को मजबूर होना पड़ा।
हालांकि बलात्कार के बाद पीड़िता की मनोस्थिति का अवलोकन किया जाए तो समाज की एक हकीकत से हम सब परिचित हो जाएंगे कि किस तरह बलात्कार पीड़िता को ता-जिंदगी उस गुनाह की सजा भुगतनी पड़ती है जो उसके नहीं किया। इस सजा के दायरे में उसे जिंदगी भर उस समाज से व अपने परिजनों से नजरें झुकाकर रहना पड़ता है जिस समाज व परिवार में वह बेटी, पत्नी, मां आदि रूपों में अपनाई गई थी। आखिर गलती किसी की और सजा किसी और को। बड़ी नइंसाफी है। क्योंकि इन पीड़िताओं को इंसाफ तो मिलने से रहा, यह तो आप सब भलीभांति जानते ही होंगे?
ठीक है अब बलात्कार हो गया सो हो गया, क्यों हो हल्ला माचते हो, कि बलात्कारियों को फांसी की सजा होनी चाहिए? हल्ला मचाने की अपेक्षा इन बलात्कारी पुरुषों को किसी मंच पर विशिष्ठ अतिथि के रूप में बुलाकर उन्हें सम्मानित करना चाहिए साथ-ही-साथ उनके द्वारा अंजाम कार्यों को जनता तक प्रेषित भी करना चाहिए कि किस तरह इन बलात्कारी पुरुषों द्वारा अपनी हवस को शांत करने के लिए मासूम से लेकर वृद्धा तक को अपनी हवस का निशान बनाया है और उसकी इज्जत को सरेआम तार-तार किया है। वैसे यह कोई आसान काम नहीं है इसके लिए दिल, कलेजा, गुर्दा, हिम्मत और भी बहुत कुछ की जरूरत होती है, साथ-ही-साथ इस काम को कोई महान सोच वाला तथा शाक्तिशाली पुरुष ही अंजाम दे सकता है। जिसे समाज, कानून व्यवस्था और भारतीय दंड संहिता का दूर-दूर तक कोई भय न हो।
वैसे इन बलात्कारियों के लिए भारतीय दंड संहिता में सजा का प्रावधान है जिसे भारतीय दंड संहिता की धारा-375 में बलात्कार के कृत्य को विस्तार से परिभाषित किया गया है। तो वहीं धारा-376 में बलात्कारी के लिए सजा का प्रावधान भी है। इसके अनुसार दोषसिद्ध हो जाने पर (जो लगभग-लगभग कभी सिद्ध नहीं होता, अपवादों को छोड़कर) बलात्कारी को 7 साल से लेकर अधिकतम उम्र कैद की सजा दी जा सकती है। वैसे आजकल बलात्कारियों को मृत्युदंड (फांसी) देने के प्रावधान पर कानून बनाने की मांग जोर पकड़ रही है। जो शायद ही कभी बन सके? इस कानून के न बनने के पीछे मुख्य कारण हमारा पुरुष प्रधान समाज ही है जो कभी नहीं चाहेगा कि पुरुषों के खिलाफ कोई भी इस तरह का कानून बने, जो बाद में जाकर उनके गले की हड्डी साबित हो, जिसे न तो वह निगल सके न उगल सके।
हालांकि बलात्कार को दुनिया का जघन्यतम अपराध केवल-और-केवल कानून व्यवस्था के अंतर्गत ही माना गया है। अगर यह वास्तव में जघन्यतम अपराध की श्रेणी के दायरे में होता तो इसके ग्राफों में बाजारवाद की तरह लगातार वृद्धि नहीं देखी जाती। और इस तरह के कृत्यों पर पूर्णतः अंकुश लग गया होता। हां यह बात सही है कि बलात्कार जितना जघन्य अपराध होता है उतनी ही लंबी उसकी न्यायिक प्रक्रिया। वैसे भारत के थानों में रोजाना बलात्कार के सैकड़ों मामले दर्ज होते हैं। लेकिन दर्ज होने वाले मामले, वास्तव में होने वाले बलात्कार के मामलों के मुकाबले काफी कम होते हैं। इसका मुख्य कारण कि बलात्कार की शिकार महिला कोर्ट-कचहरी नहीं जाना चाहती, और बलात्कार को अपनी नियति मानकर चुप बैठ जाती है। पीड़िताओं की इस ‘चुप्पी’ के मूल में हमारा पुरूष प्रधान समाज और सामाजिक मान्यताएं भी काम करती हैं। हमारे समाज में बलात्कार की पीड़ित महिला को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता, उसका हमेशा ही तिरस्कार किया जाता है। इसलिए अधिकतर पीड़ित महिलाएं और उनके मां-बाप बलात्कार के बाद खून का घूंट पीकर चुप हो जाते हैं। और अगर वह इंसाफ के मंदिर में जाते भी हैं तो वहां उन्हें एक लंबा इंतजार करना पड़ता है। इस लंबे इंतजार के साथ-साथ उसे पुलिस से लेकर बाहुबली तक का भी सामना विभिन्न-विभिन्न परिस्थितियों में उस व उसके परिवार को करना पड़ता है। इन सब के उपरांत भी इंसाफ मिल जाए तो भगवान ही मालिक है।
तभी तो इसी लाचार पुलिस व्यवस्था व लंबी कानूनी प्रक्रिया के चलते हम आए दिन समाज में इन बलात्कारी लोगों के किस्सों को मीडिया के द्वारा रोजाना मुखतिब होते रहते हैं। यदि समाज सजग और कानून व्यवस्था सख्त हो जाए तो शायद बलात्कार के मामलों में कुछ हद तक कमी हो जाए। और आधी आबादी कुछ तो अपने आप को इस राक्षसी समाज से सुरक्षित महसूस कर सके। नहीं तो हे बलात्कारी पुरुष आप…………………….।

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