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मीडिया यथार्थ और नैतिकता

सरोकार
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एक सदी पहले कहा गया था कि ‘‘जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।’’ परंतु आज मीडिया के परिपे्रक्ष्य में यह बात कदापि लागू नहीं होती। क्योंकि मीडिया आम जनता का हथियार होने के साथ-साथ शोषण का औजार बनता जा रहा है। वह कभी संचालक, निर्णायक के साथ-साथ खलनायक की भूमिका का भी निर्वाहन करने लगा है जिस कारण से सीधे मानव जीवन प्रभावित हो रहा है। यह आज के मीडिया का वास्तविक पहलू है जिसके धरातल पर उपजी खाई समाज के सच और मीडिया की नैतिकता के बीच साफ तौर पर देखी जा सकती है।
मीडिया नैतिकता और यथार्थ के नाम पर जो प्रकाशित व प्रसारित कर रहा है उसमें पूर्णतः सच्चाई हो, नैतिकता हो, इस बात पर हमेशा से प्रश्नवाचक चिहृ लगते रहे हैं। क्योंकि वह ‘‘समाज से कुछ-न-कुछ अंश छिपा ही लेता है, बाकि चीजों को वह बढ़ा-चढ़ा कर समाज के समाने परोस देता है। मीडिया जनता से यथार्थ के कुछ अंश इसलिए छिपा लेता है क्योंकि, वो समाज को सच से रू-ब-रू कराने का जोखिम नहीं उठाना चाहता।’’ वैसे मीडिया ने अपनी सारी नैतिकता की सीमाओं को लाघंकर दुनिया को अपने शिकंजे में कस लिया है। इस शिकंजे की पहुंच से अब गरीब तबका भी अछूता नहीं रहा है।
यह कहना गलत नहीं होगा कि मीडिया ऑक्टोपस की भांति अपनी बांहें पसारे खड़ा हुआ है न जाने कब किस बांह से गर्दन दबोच ले। और सामने वाले को पता ही न चल पाए। ‘‘इस खेल के पीछे बाजारवाद और पूंजी की शक्ति काम करती है। जिस कारण समाज की अधिकांश जनता को अपनी अंधी दौड़ में शामिल हो चुकी है। इस अंधी दौड़ के चलते मीडिया ने हमें सनसनीखेज सुर्खियों का आदी बना दिया है। इतिहास, कला, संस्कृति, राजनीति, घटना आदि सभी क्षेत्र में सनसनीखेज तत्व हावी होने लगे हैं। यही सनसनीखेज सुर्खियां जनता के दिमाग पर लगातार बमबारी कर रही हैं। इस हमले में ज्यादा-से-ज्यादा खबरें होती हैं।’’ किंतु इन खबरों की व्याख्या करने और आत्मसात करने की जरूरत में लगातार गिरावट आ रही है। ‘‘आज मीडिया जनता को संप्रेषित ही नहीं कर रहा, अपितु भ्रमित भी कर रहा है। यह कार्य वह अप्रासंगिक को प्रासंगिक बनाकर, पुनरावृत्ति और शोर के साथ बखूबी कर रहा है।’’
यह सही है कि एक हद तक मीडिया उद्योग का रूप अख्तियार कर चुका है तथा मुनाफा अर्जित करना उसका मूल उद्देश्य बन गया है। इस कारण से यह ज्ञात हो पाना मुश्किल प्रतीत होता है कि पत्रकारिता मिशन है या व्यवसाय। यह सवाल विचारणीय है? आजादी के बाद मिशन से व्यवसाय बनी पत्रकारिता अब ग्लोबल आंधी में बाजार की कठपुतली बन गई है। इस बाजार के नए औजारों ने इसकी नैतिकता को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया है। जे.बी. मैकी के कथनानुसार कि – ‘‘पत्रकारिता में किसी भी तरह भ्रष्टता या नैतिक भावना के साथ खिलवाड़ का परिणाम अंत में बुरा ही होता है।’’ ‘‘क्योंकि अच्छे-बुरे, नैतिक-अनैतिक का पैरामीटर उनके किसी काम का नहीं है। नैतिकता के प्रश्न उनके लिए बेमानी होने लगते हैं। मीडिया की प्रवृत्ति में दिनोंदिन तेजी से आ रहे बदलाव यथार्थ के ‘बाजारवाद के मॉडल’ का ही परिणाम है।’’
वास्तव में यह युग सूचना और संचार क्रांति का युग है जिसमें मीडिया अपने मूल आदर्शों से पतित हो रहा है। सामाजिक सरोकारों से लगातार विमुख होते जाने से मीडिया का नैतिक पतन निश्चित रूप से हुआ है। ‘‘आज के पत्रकारी युग का आदर्श, खबरों को देना नहीं बल्कि ऐन-केन प्रकारेण खबरों को बेचना भर रह गया है। खबरों में न केवल मिलावट हो रही है बल्कि पेड न्यूज के तहत विज्ञापनों को खबरों के रूप में छापकर पाठकों को गुमराह तक किया जा रहा है।’’
इस आलोच्य में बात करें तो आज का मीडिया खतरे की चेतावनी नहीं देता, बल्कि खतरे को कई बार और बढ़ा देता है। ‘‘कुछ वर्षों पहले गुजरात के ‘गोधरा कांड’, के दौरान उन्माद बढ़ाने वाली रिपोर्टिंग के जरिये यही तथ्य उजागर हुए। अभी हाल ही में मुंबई के होटलों में हुए आतंकवाद घटनाओं की रिपोर्टिंग ने राष्ट्रीय सुरक्षा तक की चिंता नहीं की।’’ एक समय था जब मीडिया में सत्य, प्रेम, अहिंसा, करूणा, दया और मानवता का संदेश देने वाले महापुरूष और देश पर प्राण न्यौछावर करने वाले क्रांतिकारी उन खबरों के नायक हुआ करते थे, लेकिन आज तस्करों, डकैतों, बलात्कारियों को इनमें नायकत्व मिल रहा है। जैसे-‘‘2005 के आखिरी महीनों में दिल्ली पब्लिक स्कूल के दो छात्रों का जो अश्लील एम.एम.एस. बना था। देश भर ने वो तस्वीरें देखीं और जनता नैतिकता पर मीडिया की चिल्लाहट की गवाह बनी। इस खबर के बाद लड़की के पिता ने आत्महत्या कर ली।’’
कहना गलत न होगा कि, मीडिया में ध्वस्त होते नैतिकता के मानदंड इतने प्रभावित हो चुके हैं कि उसमें सूचना का यथार्थ अपने-अपने हितों को साधने के कारण बदल जाता है। ज्याॅ बोद्रिया के शब्दों में, ‘‘मीडिया शब्द, दृश्य और अर्थ को ध्वस्त करके उन्हें पुनर्निर्मित करता है ताकि इच्छित प्रभाव उत्पन्न किया जा सके। मीडिया हमारे और यथार्थ के बीच मध्यस्थता करता है और यह मध्यस्थता हमारे लिए यथार्थ को अधिक-से-अधिक अवमूल्यन करती है। क्योंकि, लक्ष्मण रेखा के उस पार सफलता का उजाला नहीं बल्कि असफलता का जिल्लत भरा अंधेरा है।’’ क्या हमारे देश के पत्रकार और मीडिया ‘न्यूज ऑफ द वर्ल्ड्’ के अंजाम से कुछ सबक लेंगे? उनका जो हो सो हो, पर सवालों से घिरा भारतीय मीडिया इस दुर्घटना से सबक क्या लेता है? ‘‘पिछले दो दशकों के दौरान हमारे मीडिया ने भी लक्ष्मण रेखा को लगातार लांघा है। मीडिया को व्यवसाय मानने में कोई हर्ज़ नहीं है, परंतु हर पेशे की अपनी नैतिकता होती है और नैतिकता के अपने ही मानदंड। क्योंकि इनका निर्वाह ऑक्सीजन की तरह है, जिसके बिना जिया नहीं जा सकता। ये मानदंड इधर के सालों में लगतार टूटे हैं। यह चिंता की बात है।’’
हालांकि इसमें कोई दो राह नहीं है, कि ‘‘आज राजनीतिक दलों व औद्योगिक कंपनियों के मीडिया प्रकोष्ठ और पी.आर. एजेंसियां मिलकर समाचार की अंर्तवस्तु को दिनोंदिन प्रभावित कर रही है, उसे अपने अनुसार तोड़-मरोड़ रही है, धुमा रही है, अनुकूल अर्थ दे रही है, और यहां तक कि जरूरत पड़ने पर अपने प्रतिकूल की खबरों को दबाने तक की पुरजोर कोशिशें कर रही है। इसमें करोड़ों रूपये की डील हो रही है। लेकिन मीडिया प्रबंधन के बढ़ते दबदबे और दबाव ने मीडिया की स्वतंत्रता, निष्पक्षता, संतुलन और तथ्यपरकता तथा सामाजिक व राष्ट्रीय सरोकारों को न सिर्फ कमजोर करके गहरा धक्का पहुंचाया है बल्कि उसकी साख और विश्वसनीयता को भी अपूर्णनीय क्षति पहुंचाने का काम किया है।’’
निष्कर्ष की बात करें तो ‘‘नैतिकता जीवन समाज के किसी भी क्षेत्र में गांधीयुग की तरह नहीं रही है तो फिर मीडिया में ही क्यों रहे? लोकतंत्र के अन्य स्तंभों पर अंकुशपरक नजर रखने की जिम्मेदारी मीडिया पर है जब तीनों स्तंभ अनैतिकता और भ्रष्टाचार के दीमक से एकदम खोखलें हो गए हैं तब चैथे स्तंभ खबरपालिका में 60 साल तक नैतिक रूप से श्रेष्ठ रहने के बाद वैश्विकरण व बाजार के कुछ दीमक लग गए तो इतनी हाय-तौबा, शोर-शराबा क्यों? जब जीवन व समाज में कही आदर्श नहीं तो एक मात्र क्षेत्र मीडिया के लिए इतने कडे़ आदर्श क्यों?’’ समझ से परे की बात प्रतीत होती है।
फिर भी कहना कठिन है कि मीडिया के इस परिवर्तन का क्रम कहां जाकर थमेगा। जरूरत है अपनी संस्कृति के संस्कार और संविधान की मर्यादा के प्रति जागरूकता बनाए रखने की। तभी हम ग्लोबल तूफान के बावजूद ऐसी परिस्थितियां पैदा कर सकेंगे जो मीडिया को उसके मौलिक स्वरूप और चरित्र के साथ-साथ न्याय कर सकने में सक्षम हों।

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