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क्यों पुरूष हैवान बन जाता है……..?????

सरोकार
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जागरण जंक्शन के साथ-साथ समूची स्त्री जाति कारण जानना चाहती है कि आखिर पुरूष हैवान कैसे बन जाता है। इस विवादस्पद प्रश्न का जबाव कोई और नहीं स्वयं स्त्री जाति बता सकती है, कि वो कौन-से मूल करण हैं जिसकी वजह से एक पुरूष हैवान बन जाता है। मेरा इस तरह से समूची स्त्री जाति पर प्रश्न उठाना, शायद किसी को भी अच्छा न लगें। लग भी कैसे सकता है, क्योंकि स्वयं हमने मानव को दो भागों में विभाजित कर दिया है-एक पुरूष, दूसरा स्त्री। इस तरह का विभाजन आज या आज से 100 वर्ष पुराना नहीं है यह विभाजन तो पूर्व से ही चला आ रहा है। जिस प्रकार से जाति व्यवस्था सदियों से चली आ रही है ठीक उसी प्रकार। हां यह बात सही है कि वक्त की हवाओं ने कुछ परिवर्तन जरूर किए हैं परंतु उतने नहीं जितने होने चाहिए थे।
अगर समूची स्त्री जाति पर हो रहे अत्याचारों को जाति व्यवस्था से जोड़कर देखा जाए तो आज भी कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य किसी दलित जाति के व्यक्ति को ऊपर उठते नहीं देखना चाहता, वह तो यही चाहता है कि जिस तरह से सदियों से हम उन पर अत्याचार करते आए हैं और यह लोग बिना किसी विरोध के हमारा हुक्त मानते आए हैं यही परंपरा चलती रहनी चाहिए। ठीक इसी प्रकार समूचा पुरूषवादी समाज भी यही चाहता है कि एक स्त्री जिस प्रकार सदियों से उसकी उंगलियों पर कठपुतली की भांति नाचती आई है उसी तरह नाचती रहे। और पुरूष उसका जब चाहे शोषण कर सकें बिन किसी रोक-टोक के। क्योंकि पुरूष प्रधान समाज में ऐसा हमेशा से होता आया है।
मैं पुनः यह कहना चाहता हूं कि वक्त की हवाओं ने कुछ परिवर्तन जरूर किए हैं जिसे हम पश्चिमी सभ्यता की देन मानते हैं और यह परिवर्तन चाहे स्त्री जाति हो या पुरूष जाति, दोनों में देखा जा रहा है। एक कहावत यहां यथार्थ होती है कि लोग अच्छी चीजों की अपेक्षा बुरी चीजों को जल्द ही ग्रहण कर लेते हैं। हुआ भी वही, पश्चिमी सभ्यता से हमने अपने अधिकारों के प्रति सचेत और ज्ञान को कम स्वीकार किया है। इसके बाबत हमने वहां पनप रही नग्नता को पूरी तरह अपनी हवाओं में मिला लिया है। आज समाज के चारों तरह नग्नता का नाच मचा हुआ है। फिल्मों के रंगीन पदों से लेकर शादी से पहले प्रेम प्रसंग में प्रेमी की बांहों तक नग्नता आसानी से देखी जा सकती है। बाग-बगीचे, होटल, काॅलेज और विश्वविद्यालयों में भी, वो भी बिना किसी रोक-टोक के।
मेरी बात परे बहुत से लोग असहमत होगें, परंतु यदि वो मेरे विरोध में खड़ा होना चाहते हैं तो पहले एक सर्व करके आए कि देश कि राजधानी दिल्ली में कितने प्रेमी युगल हैं, कितनों का पहला प्यार है और कितनों का……….??????? और तो और इस प्रेम प्रसंग की पृष्ठभूमि की धरातल कितनी गहरी है यह भी पता लगा कर आए। हकीकत से स्वतः रूबरू हो जाएंगे। यह मैं केवल राजधानी के परिप्रेक्ष्य में नहीं कह रहा हूं अपितु संपूर्ण भारत के परिदृश्य के बारे में कह रहा हूं कि प्यार के नाम पर क्या-क्या हो रहा है।
यहां एक वाक्या आपको बताना चाहूंगा कि एक विश्वविद्यालय में बाहर से आईं स्त्री चिंतक और विश्लेषक महोदया जिसका मैं नाम भूल रहा हूं उनसे मैंने एक प्रश्न किया था जिसका उत्तर उन्होंने घुमा-फिरा कर अपूर्ण ही दिया। शायद वो मेरे प्रश्न से सरोकार नहीं रखना चाहती थीं या स्त्री होकर स्त्री जाति पर ही सार्वजनिक जगह पर सवालिया निशान लगाने में खुद को असहज महसूस कर रही होगीं। सवाल आप सभी के समक्ष रख रहा हूं कि जब लड़का-लड़की समाज से परे होकर प्रेम-प्रसंग में कसमें-वादें खाते हैं जब तक यह प्यार ही होता है। ज्यों ही यह समाज की नजरों में आता है यह प्यार बलात्कार में तब्दील हो जाता है। एक ही पल में इतना बड़ा बदलाव, आखिर कैसे? और कैसे एक लड़की अपने प्रेमी पर ही बलात्कार का संगीन आरोप लगा सकती है समझ से परे है।
मैं मानता हूं कि स्त्रियों का शोषण होता है। उनके पैदा होने से लेकर बड़े होने तक उन पर तरह-तरह के अत्याचार किए जाते हैं। परंतु यह सिक्के का एक मात्र पहलू ही है। क्योंकि हमस ब आंकड़ों के खेल में फंस जाते हैं और उसी दृष्टिकोण में देखने व सोचने लगते हैं। जैसा यह आंकड़ें हमें दिखाना चाहते हैं। वैसे सर्वे और आंकड़ों की हकीकत से सभी बुद्धजीवी भलीभांति परिचित होगें कि कैसे आंकड़ें एकत्रित किए जाते हैं। सर्वे कराने वाली संस्था और करने वाली संस्था दोनों अपने ही मुताबिक आंकड़ों को एकत्रित करती है बाकि उनका किसी से भी कोई सरोकार नहीं होता।
पुरूष के स्त्री के प्रति हैवान बनने की तो मैं पूर्णतः पश्चिमी सभ्यता को दोषी नहीं मानता, पश्चिमी सभ्यता के साथ-साथ आज की शिक्षा व्यवस्था व मां-बाप को भी बराबर का दोषी मानता हूं। क्योंकि जिस तरह मां-बाप और गुरूजनों का ध्यान बच्चों से विमुक्त हो चुका है। यह सभी जान रहे हैं। बच्चें क्या कर रहे हैं, कहां जा रहे हैं, किसके संपर्क में हैं खुद मां-बाप को ही मालूम नहीं होता। ठीक है आजादी है सभी को स्वतंत्र रहने की आजादी है। परंतु यह अश्लीलता की आजादी, कैसी आजादी है? जनसंचार माध्यमों द्वारा परोसी जा रही अश्लीलता और आस-पास के वातावरण के कारण तन पर कपड़ें दिनों-दिन छोटे-से-छोटे होते जा रहे हैं। लड़कियों का भी कहना है कि जो दिखता है सो बिकता है। यदि दिखाएंगे नहीं तो लड़के उनके प्रति आकर्षित कैसे होगें?
अब रही बात पुरूष के हैवान बनने की तो शारीरिक बदलाव के दृष्टिकोण से देखे तो पुरूष किसी भी आकर्षित वस्तु के प्रति जल्द ही उतेजित होने लगता है। ज यह उतेजना धीरे-धीरे अपनी चरम सीमा पार करने लगती है तब पुरूष का दिमाग स्वयं के वश में नहीं होता और वह हैवान बन जाता है। इस हैवानियत में वह यह तक भूल जाता है कि वह क्या करने जा रहा है। जिसका बाद में उसे पछतावा भी होता है। इसके साथ-साथ एक कारण और जो मेरी समझ में आ रहा है कि जब तक प्यार के नाम पर एक पुरूष की शारीरिक पूर्ति होती रहती है तब तक कुछ नहीं होता। ज्यों ही उसकी प्रेमिका या जिस के साथ संबंध है वह उससे अलग होती है और पुरूष की शारीरिक पूर्ण होनी बंद हो जाती है तब वह हैवान बनने लगता है। क्योंकि यह भी एक तरह का नशा है जो आज की युवा पीढ़ी की रगों में कम उम्र में ही घुल जाता है। पर कैसे, यह मुझें अभी तक पता नहीं चला।
इतना सब लिखने के बाद मैं स्त्रीवादी चिंतकों से एक सवाल करना चाहता हूं कि पुरूष के हैवान बनने के पीछे सबसे पहले किसे वह कठघरे में खड़ा करेंगी। प्यार को, समाज को, पश्चिमी सभ्यता को, शिक्षा व्यवस्था को, संचार माध्यमों को, कानून व्‍यवस्‍था को, पुरूषवादी सोच को, मां-बाप को या फिर स्वयं स्त्री अपने आप को।

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