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होनी चाहिए सभी आतंकवादियों को फांसी

सरोकार
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भारत में फांसी को कठोरतम सज़ा के रूप में देखा जाता है। उच्चतम न्यायालय ने सन् 1983 में कहा था कि मौत की सज़ा दुर्लभ-से-दुर्लभ मामलों में ही दी जाए। हालांकि, इसके बाद भी देश में फांसी देने के कई मामले सामने आए। केंद्रीय गृह मंत्री रहे हमारे नए राष्ट्रपति पी. चिदम्बरम ने संसद में कहा था कि अफ़जल गुरू के अलावा 50 से अधिक लोगों की फांसी के मामले लटके हुए हैं। हाल ही के बरसों में अफ़जल गुरू के फांसी की सज़ा का मामला अधिक चर्चाओं में रहा। उसे वर्ष 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले में फांसी की सज़ा सनुाई जा चुकी है। इसके बाद मुंबई में हुए बम धमाको में अरोपी क़साब तथा गोधरा टेªन कांड में आरोपी 11 लोगों को भी फांसी की सज़ा सुनाई जा चुकी है। यदि सरकारी आंकड़ों पर गौर करें, तो यह स्पष्ट होता है कि 1975 से 1991 तक 40 लोगों को फांसी पर लटकाया जा चुका है। हालांकि, भारत में आज़ादी के बाद से अब तक के फांसी संबंध आंकड़ों को देखने पर इसमें काफी विरोधाभास दिखाई देता है। सरकारी आंकड़ों में यह दावा किया गया है कि 1947 से अब तक 55 लोगों को ही फांसी दी गई है। ‘‘लेकिन, पी.यू.सी.एल. ने 1965 में विधि आयोग के दस्तावेजों के हवाले से यह खुलासा किया कि 1953 से 1963 तक ही 1422 दोषियों को मौत की सज़ा हुई। आज़ादी से अब तक लगभग 4300 लोगों को फांसी हो चुकी है।’’
इस आलोच्य में कहें तो राजनैतिक धरातल पर खड़ी कसाब और कसाब जैसे बहुत-से लोगों की फांसी की सजा आज भी शियासी जंग की बलि चढ़ती जा रही है। जिस शख्स को अभी तक फांसी पर चढ़ा देना चाहिए था उसे सरकार खिला-पिलाकर पालने का काम कर रही है, बलि चढ़ाने के लिए नहीं, बल्कि चढ़ने के लिए। भावी सरकार उन लोेगों के दर्द से बिल्कुल अनभिज्ञ बनी हुई है जिन लोगों ने अपने प्रियजनों को आतंकी हमले में हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया। सही बात है ‘‘जाकि फटी न बिवाई, वो क्या जाने पीर परायी’’। इस आतंकी हमले में अगर इन नेताओं के परिजन होते तो शायद इनका दिमाग ठिकाने आता कि हम सांप को दूध पिलाने का काम कर रहे हैं जो कभी-न-कभी पलटकर वार जरूर करेगा। क्योंकि आतंकवादियों को जितना भी दूध क्यों न पिलाया जाए इनके जहर में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
वहीं समस्त मामले में मानवाधिकार आयोग का रवैया भी बड़ा हस्याप्रर्द नजर आता है वह भी इन मेढ़को को नहला-धुलाकर साफ करने के प्रयास में लगी है, परंतु वह यह नहीं जान रही कि जितना भी नहला-धुलाकर क्यों न साफ कर दिया जाए, जाएगा साला कीचड़ में ही। मैं और मेरे जैसे हजारों-लाखों लोग मानवाधिकार आयोग और सरकार से इस प्रश्न का उत्तर अवश्य ही चाहते है कि जब मानवाधिकार आयोग और सरकार कहां सो रही थी जब ये आतंकवादी बेकसूर लोगों को मौत के घाट पर उतार रहे थे। शायद यह लोग चादर तानकर चैन की नींद सो रहे होगें। या फिर चढ़ावे का देश है चढ़ोत्री चढ़ने में देर नहीं लगती है। अपना काम बनना चाहिए फिर जनता भाड़ में जाए। क्या फर्क पड़ता है। तभी तो वह इस कसाब जैसे कसाई की सिफारिस करती नजर आती है और सरकार उसकी हां में हां मिलती हुई।
क्या सोच रही है सरकार, समझ से परे है। शायद इंतजार है कि किसी और आतंकवादी का, जो मासूम लोगों को अपनी बंदूक की नोंक पर लेकर अपने साथियों की रिहाई की मांग करे। क्यों नहीं चेत रही है सरकार, कि न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। चढ़ा देना चाहिए सभी आतंकवादियों को फांसी पर ताकि कोई और आतंकवादी हिम्मत न कर सके इस देश की सरजमीं पर कदम रखने की।

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