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एक हों और करें जाति व्यवस्था को पूर्णतः समाप्त

सरोकार
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भारतीय संस्कृति और सभ्यता में मानव का उदय आदिकाल से हुआ है जहां मानव समाज अपनी जीविका हेतु फल-फूल, कच्चा मांस आदि पर निर्भर रहता था। तन नग्न और दिमाग पूर्ण रूप से अविकसित था। धीरे-धीरे ज्ञान की पराकष्ठा और अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप वस्तुओं की खोज का क्रम जारी होने लगा। जिनती आवश्यकता उतना ही खोज, यानि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी के रूप में इनके समक्ष परिलक्षित होती गई। सभ्यता और विकास की आधारशिला पर यह मानव जाति धीर-धीरे अग्रसरित होने लगी। अग्रसरित होने के इस क्रम में मानव ने अपना पूर्ण विकास भी कर लिया। विकास के धरातल पर जिसने जितना विकास किया वह उतना शक्तिशाली होता गया। यहीं से कार्यों का विभाजन भी किया जाने लगा, कि कौन-कौन और कौन-सा वर्ग क्या-क्या काम करेगा। उस समय सभी कार्यों को एक समान दृष्टिकोण से देखा जाता था तथा जातिगत समस्या भी नहीं थी। परंतु शक्तिशाली लोगों ने कार्यों के साथ-साथ जातिगत व्यवस्था को जन्म देना प्रारंभ कर दिया, इसका परिणाम यह हुआ कि जो निम्न स्तर पर काम करते थे उनको निचली जाति, जो उससे ऊपर उनको पिछड़ी जाति तथा जो सत्ता या सत्ता चलाने में शक्तिशाली लोगों की मदद करते थे उनको उच्च जाति में विभाजित कर दिया गया।
यहीं से जातिगत व्यवस्था का उद्य हुआ और धनाढ्य वर्ग ने निम्नवर्गों के लोगों पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। अब यह निम्न वर्ग इनके रहमोकरम पर ही अपना और अपने वर्ग का जीवन यापन करने पर मजबूर थे। वहीं शक्तिशाली लोगों को ज्ञान का पाठ्य पढ़ाकर यह भी करवा दिया गया कि जो निम्न हैं उन पर उसी तरह का व्यवहार किया जाना चाहिए, ज्ञान इनके आस-पास नहीं भटकना चाहिए। उनका दास/गुलाम बनाकर रखना चाहिए, नहीं तो यह भी हमारे बराबर में खड़े होने लगेंगे, व्यवस्था चरमरा जाएगी। इस ज्ञान की दक्षिणा से हुआ भी कुछ ऐसा ही, कि उनको सत्तारूढ़ी वर्गों ने अपना गुलाम बनाकर उन पर शासन चलना शुरू कर दिया। इसी क्रम में जाति के अंतर्गत जाति पनपने लगी। यानि निम्न जाति में भी मानवजाति को जातियों के अंतर्गत विभाजित कर दिया गया। एक जाति क्या कम थी जो जातियों में बांट दिया गया। अब स्थिति पहले जैसी कदापि नहीं रही। कैसे रह सकती थी। एक जाति फिर उसमें भी बहुत सारी जातियां।
यह कहना गलत नहीं है कि मानव समुदाय में जाति के अंतर्गत जातियां होने के कारण जानवरों से बदतर जीवन यापन करता है क्योंकि जानवरों में जातियां नहीं होती हैं हां प्रजातियां जरूर पायी जाती हैं। इस जानवरों से बदतर जीवन को जीने के लिए हमारा मावन समाज ही मजबूर करता है और करता आया है। इस जातिगत व्यवस्था और ऊंच-नीच की खाई में एक और ऐसी व्यवस्था का उद्य किया गया जिसे हम छुआछूत कहते हैं। यह छुआछूत किसी बीमारी के चलते नहीं बल्कि मानव द्वारा मानव से ही थी। जबकि जानवरों में ऐसी कोई छुआछूत की व्यवस्था नहीं पायी जाती है। परंतु मनुष्यों में यह सदियों से भलीभूत होती रही है। यह आजादी के बाद भी कुछ एक जगहों पर अब भी देखी जा सकती है। रही बात जाति व्यवस्था कि तो सदियों से मुंह बायें चली आ रही यह व्यवस्था आजादी के 66वर्षों के बाद भी मुंह बायें ही खड़ी है। टस से मस नहीं हुई है। जिसको अभी तक पूर्ण रूप से खत्म हो जाना चाहिए था वह अपने यथा स्थान पर बनी हुई के साथ-साथ अब तो जातिगत आधारित लोगों का भी जन्म हो चुका है। पहले मंदिर-मस्जिद बनते थे अब जातिगत पार्टियों का बोलबाला हो चला है। इस आलोच्य में कहें तो एक ऐसा झुड़ जो केवल और केवल अपनी जाति तक ही सीमित है। यह झुड़ जातिगत व्यवस्था में घी का काम कर रहा है। चाहे इस घी की प्रचंड अग्नि में भारत स्वाहा क्यों न हो जाएं।
वैसे जो स्थिति दिखाई दे रही है वह भयावह होती जा रही है। एक जुट भारत की नींव में अब दरारें दिखाई देने लगीं हैं। और इस दरारों में से सिर्फ-और-सिर्फ भारत का बंटबारा ही दिखाई दे रहा है वह भी जातिगत बंटबारा। आओं हम सब एकजुट हो और संकल्प लें, इस जातिगत व्यवस्था के खिलाफ ताकि भारत के टुकडे़-टुकड़े होने से इसे बचाया जा सके।

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