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आज़ाद भारतः गुलामी की ओर अग्रसरित

सरोकार
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आज़ाद भारत में जीने के बावजूद हम सभी को किसी न किसी से आज़ादी चाहिए-ही-चाहिए। नेताओं से, भ्रष्टाचार से, जीवन से, परिवार से, पति से, पत्नी से, जेल से, अस्पताल से, भीड़भाड़ से, जाति-धर्म से, आतंकवाद से और ऐसी ही बहुत सारे चाजों से हमें आज़ादी चाहिए। वैसे 15 अगस्त, आज़ादी का दिन जिसकी पृष्ठभूमि न जाने कितने शहीदों की शहादत से मिली है। आज से ठीक 66 साल पहले हमें यह दिन देखना नसीब हो सका। जिसे हमें स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते हैं। इस दिन को मानने के मूल कारण हम सभी को अंग्रेजों की जुल्म भरी हुकूमत से मिली वह आज़ादी है जिसे पाने के लिए हमने न जाने कितने प्रयास किए, न जाने कितने अत्याचारों, शोषण को सहा और न जाने कितने लोगों ने अपने जीवन तक को बलिदान कर दिया। तब जाकर हमें यह दिन नसीब हो सका। क्योंकि वह चाहते थे कि हमारी आने वाली पीढ़ी इस अत्याचार और जुल्मों-सितम की दहशत से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से जीवन जी सके। हुआ भी कुछ ऐसा ही, हमारे स्वतंत्रता संग्राम के सभी सेनानियों (गरम दल व नरम दल) ने अपने-अपने योगदान सं अंग्रेजों को इतना विवश कर दिया कि आखिरकार उनको भारत छोड़कर जाना पड़ा।
हुए, आज़ाद हुए, सभी ने जश्न मनाया आखिर मानते क्यों नहीं, एक लंबे जुल्मों-सितम की इबारत के बाद मुक्ति जो मिली थी। सभी खुशी के जश्न में डूबे थे वहीं पुनः इन लोगों केां गुलाम बनाने की कवायत यानि रणनीति बनाई जा रही थी। जिससे हम सभी अनभिज्ञ थे पर कुछ विद्वतजन अंजान नहीं थे। उन्हें यह एहसास अंग्रेजों के भारत छोड़ने से पहले ही हो चला था कि आज़ादी मिलने के बाद क्या-क्या होने वाला है। उन लोगों ने इस रणनीति (पुनः गुलाम बनाने की कवायत) के खिलाफ आवाज़ भी उठाई, परंतु उस आवाज़ को वहीं दबा दिया गया। लेकिन इसके पुख्ता प्रमाण नहीं मिलते है हालांकि कहीं-न-कहीं से रह-रहकर यह हमारे सामने आते रहे हैं। जिसे दबाने की भी पुरजोर कोशिशें होती रही हैं।
अंग्रेज भारत को अपनी हुकूमत से मुक्त करके चले तो गए परंतु इसकी सत्ता ऐसे हाथों में चली गई जिसने आज़ादी के पहले ही पुनः गुलाम बनाने की रणनीति तय कर ली थी। हां मैं बात कर रहा हूं हमारे राजनेताओं की। जिनका इस आज़ादी में योगदान न के बराबर रहा, इसके बावजूद कुछ लोगों की राजनीति के चलते उन्हें इस देश का प्रधानमंत्री बना दिया गया। वहीं बहुत से ऐसे शहीद जिन्हें इन नेताओं की वजह से आज तक यह स्वतंत्र भारत वह दर्जा नहीं दे सका, जिन लोगों ने हंसते-हंसते फांसी को गले लगा लिया। मैं अगर कहीं गलत नहीं कह रहा हूं तो कुछ लोगों को हर नोट पर पाए जाने राष्ट्रपिता फांसी से बचा सके थे परंतु वह भी नहीं चाहते थे कि स्वतंत्र भारत में हमारे कार्य-कलाप में यह लोग हस्तक्षेप कर सकें। यानि हमारी मनमानी के खिलाफ कोई भी ऐसा नहीं रहना चाहिए जो आवाज उठा सके। तभी बहुतों को शहीद होना पड़ा।
वहीं इन्हीं नेताओं के वंशागत परम्परावादी, भाई-भतीजेवाद और जनता को लूटकर अपना खजाना भरने के चलते इन शहीदों को आज तक भारत पहचान दिलाने में न कामयाब रहा है। वहीं यह नेता पहले स्वयं फिर उनके बच्चे, फिर बच्चों के बच्चे यही प्रथा धीरे-धीरे चली आ रही है और नेताओं के लूटने का सिलसिला बदस्तूर बिना रोक-टोक के जारी है। एक कहावत कि राम नाम की लूट है लूट सको तो लूट, इक दिन ऐसा आएगा कि प्राण जाएंगें छूट। प्राण जरूर छूट जाएं लूटने का सिलसिला नहीं थमेगा। किन-किन नेताओं का नाम लूं, कि हमारे देश में इस तरह के नेता हमारे ऊपर राज कर रहे हैं। वो जैसा चाहते हैं हम पर हुकूमत कर रहे हैं जैसे अंग्रेज करते थे। कभी गरीबों को लूट कर, कभी जाति-धर्म को आपस में लड़ाकर, तो कभी मासूम जनता पर अत्याचार करवाकर।
मैं यहां एक बात जरूर कहूंगा जिससे बहुत से नेताओं को जो इसमें लिप्त हैं उनको मिर्ची जरूर लग सकती है। कि जितने भी हमले, सांप्रदायिक दंगें, आतंकवादी गतिविधियां होती हैं उन सभी मे कहीं-न-कहीं हमारे नेताओं का हाथ भी हो सकता है। और जब कोई आतंकवादी पकड़ा जाता है तो उसकी खतीरदारी की जाने लगती है, आखिर दमाद जो हैं तभी तो लाखों रूपए उस आतंवादी पर सरकार खर्च करती है पालती है, ताकि यह पुनः खा पीकर फिर अपनी गतिविधियों को अंजाम दे सकें। वहीं गरीब जनता एक-एक रोटी के लिए अपने शरीर का सौदा करती देखी जा सकती है।
इन आतंकवादी को पालने का मूल मकसद समझ से परे है। इन आतंकवादी के साथी इनको छुड़ाने के लिए कभी मासूम बच्चों को, मंदिरों-मस्जिदों तथा बस, हवाई जहाज आदि को अपना निशान बनाते हैं मजबूर होकर उनको छोड़ना पड़ता है, उनकी शर्तों को मानना पड़ता है। अगर पकड़ने के बाद ही इनको ठिकाने लगा दिया जाए तो शायद ही ऐसी पुनर्वृत्ति हो। पर नहीं सरकार के साथ-साथ यह नेता भी चाहते है कि ऐसा होते रहना चाहिए तभी यह जनता दहशत में रहेगी और हमको ही अपना रहनुमा मानने पर मजबूर होगी। जब कभी इन नेताओं के कुकर्मों के खिलाफ कोई आवाज उठती है ठीक उसी समय ऐसी कार्यवाहियों को अंजाम दिया जाने लगता है। अभी हाल ही की घटनाओं को देखें तो अन्ना और रामदेव ने आवाज उठाई तो पुणे तथा असम में ऐसी घटना घटित होने लगी। ताकि जनता को ध्यान इनसे भटककर इस घटनाक्रम पर केंद्रित हो जाए। अच्छा तरीका अजमाते हैं यह नेता। और अपने गिरेबान को पाक-साफ दिखाने के लिए झूठी दिलासा देते नजर आते हैं। अच्छा धंधा बना लिया है जनता को बेवकूफ बनाने का।
हां आज़ाद भारत की जनता बेवकूफ ही है जो इन नेताओ के झांसे में आसानी से आ जाती है। वहीं जनता की मसूमियत का फायदा उठाकर इनको छलने का काम बिना रोक-टोक के जारी रहता है। अब हलात कुछ अजीबों-गरीब दिखाई दे रहे हैं। कहना गलत नहीं हो तो इन नेताओं की बदौलत हम एक बार फिर से गुलामी की ओर अग्रसरित होते दिखाई दे रहे हैं। अभी भी वक्त है जागने का, इस जातिगत, धर्मवाद की लड़ाई त्यागने का और इन नेताओं के खिलाफ आवाज उठाने का। नहीं तो यह देश को बेच देगें और हम एक बार फिर किसी बाहरी हुकूमत के गुलाम हो जाएंगें। अगर पहाड़ा दूबारा पड़ना हो तो कोई बात नहीं, नहीं तो जागने का वक्त है। जिस आजादी पर हम गुमान कर रहे हैं उसे छिनते देर नहीं लगेंगी यानि हम आजादी से गुलामी की ओर बड़ी तेजी से बढ़ रहे हैं। थमना होगा, नहीं तो इतना दूर न निकल जाए कि जहां पर फिर से हमें गुलामों का जीवन जीना पड़े।

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