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क्या नाम दे इन बच्चों को…………….?

सरोकार
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यह सवाल अपने आप में हमेशा से और चारों तरफ से प्रश्नवाचकों से घिरा हुआ है। जिस पर तमाम तरह के सवालिया निशान सदियों से लगाये जाते रहे हैं और लगाये भी जा रहे हैं। इन निशानों से उपजे दागों का कहीं कोई माई बाप नहीं, जो इनको साफ करे। यह तो बस समाज की देन है, जो हमेशा दूसरों पर थोपने का काम करती है। जिसकी चुभन से कहीं कोई भी अछूता नहीं रह पाता। अपनी पूरी जिंदगी में कभी-न-कभी कुछ-न-कुछ तो झेलना ही पड़ता है। हालांकि इस समाज में चलता है सब कुछ इन समाज के रहनुमाओं द्वारा, और सामाजिक पृष्ठभूमि को अपनी ढाल बनाकर, अपना उल्लू सिद्ध किया जाता है। वैसे बहुत-से हितैसियों ने मंत्रों और भिन्न-भिन्न तरह के आडंवरों से न जाने कितने उल्लू सिद्ध किये हैं, फिर इस उल्लू सिद्धि में किसी बेगुनाह की बलि ही क्यों न चढ़ौत्री के रूप में चढ़ानी पड़े, बेझिझक चढ़ा दी जाती है। जिसे लोग अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लेते हैं। इसके अलावा इनके पास दूसरा रास्ता नहीं छोड़ा जाता, जिसे वह अपना सकें।
शायद मुझे अपनी बात घुमा-फिरा कर नहीं कहनी चाहिए थी। बरहाल में अपने मूल मुद्दे यानि बच्चे? जिसे समाज क्या नाम दे, उस पर बात कर रहा हूं। यह वे बच्चे हैं जो आम बच्चों की परिधि में सम्मलित नहीं किए जाते। यहां तक की समाज, हां पूरा समाज भी इन्हें स्वीकार नहीं करता। इन बच्चों पर तरह-तरह के प्रश्नवाचक शब्द थोप दिये जाते हैं और छोड़ दिया जाता है मरने के लिए। हां यह बात सही है कि कुछ बच्चों की किस्मत अच्छी होती है जो पैदा होते ही इस तिरस्कृत समाज के कोप भंजन का शिकार होने से पहले ही इस समाज से रूकसत हो जाते हैं। और वो भी बच्चे जो पैदा होने से पहले ही गर्भ में मार दिये जाते हैं जिन्हें फेंक दिया जाता है किसी गंदगी में, कुत्ते और बिल्लियों का निवाला बनने के लिए। किस्मत है समाज के तिरस्कार से तो बच गये। वहीं रह जाते हैं वो बच्चे जिन्हें भगवान भी स्वीकार नहीं करता। जीना पड़ता है इसी समाज में, पल-पल मरने के लिए। और इनके साथ-साथ ताउम्र चलते हैं बहुत सारे सामाजिक सवालों के मकड़जाल। जिनसे वो कभी मुक्त नहीं हो पाता।
इस कड़ी को और आगे बढ़ाते हुए महाभारत काल में चलते हैं। जिसमें बिन ब्याही कुंआरी कुंती अपने पुत्र कर्ण को पैदा होने के बाद नदी में बहा देती है। ऐसा ही बहुत सारी कुंआरी कन्यायें, लोकापवाद के कारण अपने पुत्र को नदी में, कुएं में, जंगल में फेंक आती हैं। हांलाकि बिन विवाह के कुंआरी कन्याओं से पैदा हुए पुत्र को शास्त्र ‘कामीन’ कह कर संबोधित करता है। वहीं समाज इसे नजायज करार देता है। जो अपने आप में एक गाली है। चलिये महाभारत काल की कुंती और कर्ण को यही पर छोड़ देते हैं और बात करते हैं आज के सूचना संजाल के दौर की। जहां इन बच्चों की संख्या में लगातार इजाफा होता जा रहा है। इसका मूल आज भी अंधेरे में, किसी सात पेहरों में अब भी कैद है। परंतु इसकी परिणति से रिस्ता हुआ अम्ल, समाज में अपना हिस्सा सुनिश्चित कर चुका है।
इस आलोच्य में बात करें कि, इन बच्चों के समाज में पैदा होने के वो कौन से मूलभूत कारण हैं तो परिस्थिति हमें हकीकत के कुछ अनछुए पहलुओं से खुद-ब-खुद रूबरू करा देगी। वैसे इन बच्चों के पैदा होने में समाज का एक विशाल वर्ग आम तौर पर महिलाओं को ही कठघरे में खड़ा करके, तमाम तरह के लानछनों से नवाजता है। और उस पुरूष को छोड़ देता है जिसका इसमें बराबर का हिस्सा होता है या उससे भी कहीं ज्यादा।
अगर क्रमवार विश्लेषण करें तो पहले प्यार ही हमारे सामने परिलक्षित होता है। जिसमें लड़का-लड़की समाज से परे होकर प्यार को परवान चढ़ते हैं और फिर प्यार के नाम का सहारा लेकर अपनी शारीरिक कामवासना की पूर्ति करते हैं। इसी कामवासना से जन्म होता है इन बच्चों का। दूसरा कारण देखें तो हमारी अंतरआत्मा दहल जाती है। क्योंकि इसमें पूर्णरूप से पुरूष का ही हाथ होता है जो अपनी कामपिपास को शांत करने या सदियों से चली आ रही आपसी रंजिश के चलते इन महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बना लेते हैं और छोड़ देते हैं उपजने के लिए बे नाम संतानों को। जो कभी नदी में, कभी नाले में, कभी झांड़ियों में तो कभी कचडे़ के डिब्बे में मिल जाते हैं असहाय, बेसहारा। कुछ की सांस चल रही होती है तो कुछ की थम चुकी होती है और कुछ की चलने ही नहीं दी जाती। मार दिया जाता है आधे में ही। यह सब सोच के भी रूह काम उठती है। क्या जिंदगी है इनकी।
इतना सब लिखने के बाद भी सवाल उसी प्रश्नवाचकों के निशाने पर खड़ा हुआ है। कि क्या नाम दे इन बच्चों को। क्या गलती है इनकी जो इनको समाज स्वीकार नहीं करता। होती तो आखिर इंसान की औलाद है। जिस पर जानवरों से बदतर सलूक किया जाता है और वो सजा दी जाती है जो उसने कभी नहीं की। हां जुर्म तो किया है इस दावनी समाज में बिन विवाह के पैदा होने का।
माना कि हमारा समाज विवाह से पहले उत्पन्न संतानों को स्वीकृति प्रदान नहीं देता, परंतु इसमें इन बच्चों का क्या दोष। जिसको हमारा समाज तिरस्कार करता रहता है। और रख दिया जाता है नाम कमीना, नजायज। वैसे इन नामों से उन लड़के-लड़कियों को संबोधित करना चाहिए जो प्यार के नाम पर सब कुछ करते हैं और अपने दामन को पाक साफ दिखाने के लिए फेंक देते हैं इन बच्चों को किसी गंदगी में मारने के लिए।
लाई हयात आये, कजा ले चली चले
अपनी खुशी न आये, न अपनी खुशी चले!
मैं इसका निष्कर्ष निकाले में अपने आप को असमर्थ महसूस कर रहा हूं और कुछ पंक्तियों के साथ इसे यहीं पर खत्म करता हूं-
प्यार के नाम पे, लुटा दिया सब कुछ
दामन पाक दिखाना है तो कर्ण को बहाना पड़ेगा!

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