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प्यार………….????????

सरोकार
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प्यार शब्‍द अपने आप में बहुत ही संवेदनशील है। इस संवेदनशीलता के कारण हम, जिंदगी भर प्‍यार को तलाशते रहते हैं। प्‍यार की खोज निरंतर जारी रहती है। हां ये बात और है कि, उम्र के पढ़ाव के साथ-साथ हमारी खोज भी मध्‍यम होने लगती है, परंतु खत्‍म नहीं होती। वैसे हमें एक सच्‍चे प्‍यार की तलाश ताउम्र रहती है। जीवन के उतार-चढ़ाव के दौरान हमें एक सच्‍चा साथी मिलें तो हम अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली मानते हैं। हालांकि किसी का प्यार तभी पाया जा सकता है जब तक हम अपने आप को उसके भरोसे के काबिल न बना लें। क्‍योंकि प्यार का दूसरा नाम भरोसा है और जहां भरोसा नहीं होता वहां प्यार दूर-दूर तक नहीं रहता। हालांकि प्‍यार की पहली सीढ़ी मित्रता होती है, जो विश्‍वास पर टिकी होती है। बिना विश्‍वास के मित्रता नहीं हो सकती और न ही मित्रता, प्रेम में तबदील हो सकती है।
वैसे आज के परिप्रेक्ष्‍य में मित्रता हो या प्‍यार दोनों किसी-न-‍किसी स्‍वार्थ की नींव पे टिके होते हैं। जैसे ही स्‍वार्थ पूरा हो जाता है वैसे ही मित्रता या प्रेम स्‍वत: ही खत्‍म हो जाते हैं। इसे हम एक एग्रीमेंट के रूप में भी देख सकते हैं। काम खत्‍म तो एग्रीमेंट भी खत्‍म। इस आलोच्‍य में आगे बात करें, तो हम देख सकते हैं कि कुछ लोग इस एग्रीमेंट को प्‍यार का नाम देते हैं। जो इस प्‍यार की गहराई में इतने उतर चुके होते हैं कि जहां से निकलना इनके लिए नामुमकिन हो जाता है। जिसे ये लोग धोखे का भी नाम देते रहते हैं, कि फलां-फलां से हमने प्‍यार किया था और उसने हमें इस मोड़ पर धोखा दे दिया। इस संदर्भ में कहा जाए तो इंसान की फितरत में जैसे प्‍यार करना शामिल होता है वैसे ही धोखा देने की फितरत भी होती है।
इस धोखे की फितरत इंसानी सभ्‍यता में सदियों से रही है, चाहें पुरूष हो या स्‍त्री। दोनों में प्‍यार करने और धोखा देने के गुण एक समान होते हैं। एक तरफ पुरूष अपने स्‍वार्थों के चलते तो दूसरी तरफ स्त्रियां मजबूरियों के चलते, एक-दूसरें को धोखा देते रहते हैं। धोखा के बारे में एक व्यापक और प्रचलित मिथक यह भी है कि यदि स्त्री-पुरुष के बीच सेक्स स्थापित नहीं होता तो उसे धोखें का नाम दे दिया जाता है। अगर मैं इस बारे में सोचू कि स्‍त्री-पुरूष के बीच सेक्‍स संबंधी नहीं बनते तो उसे धोखा देना कहेंगे, हां भी और नहीं भी। मैं न तो किसी के पक्ष में बात कर रहा हूं और न ही किसी के विपक्ष में। अपना-अपना मत रखने की स्‍वत्रंता सभी को हैं। मैं न तो किसी को मूर्ख कह रहा हूं, न ही विद्वान। बदलती संस्‍कृति से सभी लोग भलीभांति परिचित है किसी को यहां यह बताने की आवश्‍यकता महसूस नहीं होती कि आज समाज में क्‍या हो रहा है। हमारी जिंदगी किस राह पर जा रही है। जिस राह पर जा रही है, उसी राह पर निकल पड़ते हैं। चाहे वह राह भंवर की हो या बवंडर की।
अगर मैं, कहूं कि इस संस्‍कृति ने प्‍यार के मायने ही बदल दिये हैं तो कहना गलत नहीं होगा। आज प्‍यार संवेदलशील के स्‍थान पर सेक्‍सशील हो चुका है। इस बदलाव ने पूरी सभ्‍यता को अपने मकड़ जाल मे फंसा लिया है जहां से निकला नहीं जा सकता, लाख कोशिशों के बाद भी। वहीं प्‍यार भी अपनी इच्‍छाओं की पूर्ति पर टिक गया है। इच्‍छा पूर्ति तक ही प्‍यार है, और एक बार इच्‍छा पूरी हुई कि प्‍यार हमारे बीच में कहां नदारत हो जाता है यह कोई नहीं जानता। और शायद जानना भी नहीं चाहता, इच्‍छा पूरी तो हो रही है। उससे इच्‍छा पूरी नहीं हुई तो कोई और, उससे न हो, तो कोई और। एक कतार बना चुका है प्‍यार के नाम की। प्‍यार को खाला का घर बना दिया जाता है, जिसकी जब मर्जी हो आये, जब मर्जी हो जाये। कोई फर्क नहीं पड़ता, और पड़ना भी नहीं चाहिए। आखिर प्‍यार ही तो है। कब कहां हो जाए ये बीते दिनों की बात हो चुकी है आज प्‍यार, जरूरत के हिसाब से, इंसान की सुंदरता और उसके स्‍टेटस के हिसाब से होता है या किया जाता है। जिसे प्‍यार का नाम देकर सेक्‍स की एक इस प्रकार की पृष्‍ठभूमि तैयार की जाती है जिस प्‍यार के साथ जोड़कर देखा जाता है। इस जुड़ाव का कहीं कोई अंत नहीं है संस्‍कृति और सभ्‍यता के बदलाव के साथ हमने इसको ग्रहण कर ली लिया है। और जी रहे हैं, इसी प्‍यार और सेक्‍सशील संस्‍कृति को।

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