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सपनों के सागर में

सरोकार
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हसीन सपनों के सागर में
डूबता चला जा रहा हूं
धीरे-धीरे-धीरे
मैं खुद नहीं चाहता हूं, निकलना
इस भंवर से
सपनों के सागर में जो हूं, वो भी हसीन
क्यों निकलू,
सपनों में ही रहने दिया, खुद को
निकलकर, कर भी क्या सकता हूं
बहुत जाग लिया, इस दुनिया में
देखा, सबको देखा
इन आंखों से
सूरज को, चांद को, दिन को, रात को
बदलते हुए मौसम को,
देखा वो भी देखा
जो गंवारा न था, इन आंखो को देखना
लूट को, मार-पीट को, रहनुमाओं की भ्रष्टाचारी को
बलात्कार को, अत्याचार को, बढ़ती मंहगाई को
शाही थाली को, कचरे की जिंदगी को
देखा सबकुछ देखा
अब और नहीं देखना चाहता
इसलिए सोना चाहता हूं, गहरी नींद में
नहीं चाहता, नींद से उठना
कर भी क्या सकता हूं, और कर भी क्या लूगा, उठकर
लचार हूं, वेबस हूं, कुछ नहीं कर सकता
चंद किताबों के ज्ञान से
बन तो सकता हूं, विद्वान
फिर भी नहीं कर सकता, इस देश का कल्याण
तभी, डूबा रहना चाहता हूं
हसीन सपनों के सागर में
कुछ न पा सकूं
फिर भी इतनी आस तो जरूर रहेगी, इस दिल में
पा सकूं उस तमन्ना को
जो सदियों से है मेरे दिल में
सपनों के सागर में रहकर………………..!!

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