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महिला अस्मिता और उनका आत्मसम्मान

सरोकार
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महिला अस्मिता का प्रश्न इंसानी बराबरी के सवाल से जुड़ा हुआ है। जबसे दुनिया में जनतंत्र की शुरूआत हुई है तब से ही महिला अस्मिता का सवाल भी उठा है। इसलिए सबसे पहला प्रश्न यह उठता है कि इंसानी बराबरी क्या है? मनुष्य की बराबरी से संबंधित सबसे पुराने विचार अमरीकी और फ्रांसीसी क्रांतियों में देखने को मिलते हैं। वैसे अमरीकी संविधान में लिखा है कि ‘‘ऑल मेन आर क्रिएटेड ईक्वल’’ व और फ्रांसीसी क्रांति के सबसे अहम दस्तावेज ‘राइट्स ऑफ मैन एंड सिटिजन’ में भी लिखा है कि ‘‘आॅल मेन आर ईक्वल’’। लेकिन दिलचस्प बात है कि इन दोनों दस्तावेजों में ‘मैन’ शब्द का प्रयोग मनुष्य मात्र यानी स्त्री-पुरूष दोनों के लिए नहीं बल्कि, पुरूष के लिए उपयोग किया गया। इसी परिप्रेक्ष्य में सबसे पहली स्त्रीवादी लेखिका ‘मेरी वोल्सटनक्रॉफ्ट’ ने इस बात का विरोध किया कि अधिकारों में सिर्फ पुरूषों के अधिकारों की बात क्यों सामने आती है, स्त्रियों के अधिकारों की बात कहां नदारत हो जाती है। क्योंकि अमरीकी जबान में ‘मैन’ का अर्थ सिर्फ पुरूष होता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिन इंसानों की बराबरी की बात की जा रही है, वे सिर्फ पुरूष हैं, उनमें स्त्रियां शामिल नहीं हैं। यानी केवल पुरूष बराबर हैं, स्त्री-पुरूष दोनों बराबर नहीं हैं। जब हम स्त्रियों को पुरूषों के समकक्ष ही नहीं मानते, तो उनकी अस्मिता या पहचान देने या दिलाने का प्रश्न ही नहीं उठता।

हालांकि, आधुनिक कानून की बात करें तो उसके दृष्टिकोण में सबको बराबर का दर्जा प्रदान किया गया है, चाहे स्त्रियां हों या पुरूष। इसी संदर्भ में हेगेल का मत है कि सिर्फ भौतिक समृद्धि से समाज में बराबरी पैदा हो ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि बराबरी के दो हिस्से हैं। एक है ‘इक्वैलिटी’ (बराबरी), चाहे वह संपत्ति की हो या कानून की, और दूसरी है ‘रिक्ग्नीशन’ (पहचान), जिसे आज हम ‘सोशल इक्वैलिटी’ (सामाजिक बराबरी) या ‘मॉरल इक्वैलिटी’ (नैतिक बराबरी) कह सकते हैं।

इस तरह महिला अस्मिता का प्रश्न भी दो सवालों से जुड़े़ हुए हैं। एक तो यह कि अगर आपको आर्थिक बराबरी नहीं मिलती, तो बाकी किसी भी तरह की बराबरी नहीं मिल सकती। आप चाहे जितने बिल पास करा लें। उन्हें आर्थिक बराबरी नहीं मिलेगी, जब तक स्त्री-पुरूष की बराबरी की बात सिर्फ कागजों में होती रहेगी। दूसरी बात यह कि सिर्फ आर्थिक बराबरी मिल जाने से बाकी सब मामलों में आप खुद-ब-खुद बराबर हो जायेंगे, ऐसी बात भी नहीं है। मसलन, अगर आप समाजवादी क्रांति करके व्यक्तिगत संपत्ति को खत्म कर देते हैं और सोचते हैं कि उसके साथ-साथ लोगों के बीच ऊंच-नीच का भेद भी खत्म हो जायेगा और सबको हर तरह की बराबरी मिल जायेगी, तो ऐसा सोचना पूर्णतयः गलत लगता है। उससे हर तरफ की बराबरी नहीं आयेगी। उसके लिए समाज में और भी बहुत कुछ बदलना पडे़गा, क्योंकि बराबरी का जो दूसरा पहलू है-अस्मिता वाला -वह सिर्फ आर्थिक मसला नहीं, बल्कि सामाजिक मसला है, जिसके साथ सभ्यता और संस्कृति के मसले भी जुड़े हुए हैं। उन मसलों को भी हल करने की जरूरत है।

अस्मिता पहचान के बारे में यह बात याद रखनी होगी कि वह कोई निजी या व्यक्तिगत चीज नहीं है। वह हमेशा सामाजिक परिपे्रक्ष्य में परिभाषित होती है यदि समाज में आपकी इज्जत नहीं है, तो स्वयः की नजरों में आपकी कोई इज्जत नहीं होगी। इस आलोच्य में कहा जाए तो समाज के हर स्तर पर महिलाओं को पुरूष जैसा आत्मसम्मान या पहचान नहीं मिल सकी है। उन्हें प्राकृतिक स्त्रियोचित गुण होने के कारण तथा उनके अपने मनोविज्ञान के कारण हमेशा ही पुरूष से नीचा माना जाता है। इससे महिलाओं के मनोस्थिति, चेतना के साथ-साथ उनके शरीर पर भी बुरा असर पड़ता है। उनकी देहभाषा ही बदल जाती है। एक तरफ मर्द सीना तानकर चलता है, तो दूसरी तरफ औरत झुककर। एक अध्ययन के अनुसार महिलाओं की रीढ़ की हड्डी मर्दों की रीढ़ की हड्डी की तरह सीधी नहीं होती, बल्कि झुकी हुई होती है, क्योंकि उन्हें झुककर चलना पड़ता है। इसका मतलब है कि अस्मिता कोई अर्मूत या हवाई चीज नहीं है। उसके न होने का असर महिलाओं के जिस्म पर और उनके हड्डियों के ढांचे पर भी पड़ता है। इस तरह अस्मिता को प्रश्न आत्मसम्मान के प्रश्न से अलग नहीं है और आत्मसम्मान का संबंध केवल मनोविज्ञान से ही नहीं बल्कि दोनों चीजें सामाजिक, सांस्कृतिक और इन दोनों का संबंध समाज की अर्थव्यवस्था और राजनीति से है।

वहीं अक्सर यह देखा जाता है कि समाज की वास्तविकता को न देखते हुए उनकी स्थिति की बात हमारे समाज में खूब होती है। मसलन, किसी पंडित से पूछिए कि भारतीय समाज में स्त्री की स्थिति क्या है, तो वह वेदों और पुराणों में से उदाहरण दे-देकर बतायेगा कि हमारे यहां तो स्त्रियों का बड़ा मान-सम्मान होता है, उनकी पूजा की जाती है, वगैरह। यानी भारतीय स्त्रियों बराबरी से ऊपर की जिंदगी जी रही हैं। लेकिन हकीकत क्या है, सब जानते हैं। इसलिए महिला के अस्मिता की बात हवा में नहीं हो सकती, उसे समाज की ठोस वास्तविकताओं के संदर्भ में ही करना होगा। यानी स्त्रियों के अस्मिता पर सही ढंग से बात वेदों और पुराणों के आधार पर नहीं आज की परिस्थितियों को देखते हुए स्त्रियों के लिए बनाये गये कानूनों के आधार पर करनी होगी। और उसके आर्थिक अधिकारों, भेदभाव की समाप्ति, हो रहे जुल्म की समाप्ति के विषय पर बात किये बिना और इन सब समस्याओं को समझे बिना इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता और न ही इसके बिना महिलाओं के अस्मिता की बात आगे बढ़ सकती है।
अगर इंसानी बराबरी और महिला अस्मिता के प्रश्न को उठाते हुए महिलाओं की स्थिति में सुधार लाना है तो उसकी नैतिकता को भी अस्मिता से जोड़ना होगा। और, जो पुरानी नैतिकता सदियों से चली आ रही है या थोपी जा रही है उसको पूर्णतयः खत्म करना होगा। तभी महिला अस्मिता का प्रश्न और उनकी स्थिति मजबूत होगी तथा उन्हें पुरूषों के बराबर का हक तथा स्थिति में सुधार हो सकेगा।

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