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गांधी जैसा कौन है?

सरोकार
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ईश्वर ने मनुष्य की बुद्धि उत्पन्न कीतो उसके सामने मकड़ी की मानसिकता आदर्श नहीं थी। जिसकी नियति निरंतर एक जैसा जाला बनाने की होती है और यह मानव प्रकृति के प्रति अत्याचार है कि किसी झुंड के माध्यम से उस पर दबाव डाला जाय और उसे एक जैसे रूप और आकार तथा प्रयोजन के लिए एक मानकीकृत उपयोगी वस्तु में परिवर्तित कर दिया जाय। परिवर्तित कि किया जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है जिसकी मांग जीवन के हर मोड़ पर होती है। जीवन से मृत्यु तक सब कुछ बदलता है। एक क्रिया है जो बिना बदले रहती है,वह है-बदलाव।
पशु प्रजाति और मानव प्रजाति में विभेद को स्पष्ट करते हुए माक्र्स ने लिखा है-मकड़ी किसी बुनकर की तरह अपना जाल बनाती है। मधुमख्खी जिस कौशल से अपना छाता बनाती है वह बड़े-बड़े वस्तुकारों के लिए बड़ी बात है। लेकिन एक खास अर्थ में सर्वाधिक अकुशल वस्तुकार भी सबसे कुशल मधुमख्खी से बेहतर कहा जा सकता है। ढांचे को वास्तविक रूप देने के पहले वस्तुकार उसे अपनी कल्पना में तैयार करता है। अर्थात् वह पहले कल्पना करता है, फिर उसे वह साकार करता है। कार्य पूरा होने के बाद हमें वही ढांचा मिलता है जिसकी वस्तुकार ने कल्पना की थी। इस प्रकार वह न सिर्फ अपनी परिकल्पना को भौतिक रूप प्रदान करता है बल्कि इससे उसे अपने प्रयोजन का भी अहसास होता है। यह प्रयोजन ही उसकी कार्य प्रणाली निर्धारित करना है।
गांधी की कार्यप्रणाली का दर्शन गीता के अध्यात्म से सृजित है, जहां कर्तव्यों के निर्वहन में अधिकारों की उत्पति सम्मिलित है। गांधी दृष्टि में मानव के अधिकार उसके कर्तव्यों के अनुगामी है। जहां गांधी व्यक्ति की क्षमता (नैतिक एवंम् सत्यनिष्ठ क्षमता) के अनुरूप उसके अधिकारों की सुलभता पर बल देते हैं। जो उनके नैतिकतावादी दर्शन पर आधारित है। कर्तव्य पर गांधी द्वारा अत्याधिक बल दिये जाने का तात्पर्य यह कतई नहीं हैं कि वे अधिकारों की उपेक्षा करते हैं, अपितु मानवाधिकार तो उनके जीवन के सम्पूर्ण अहिंसक संघर्ष का मुख्य आधार रहे हैं।
व्यक्ति को अपने जीवन मूल्य पर सतात्मक अधिकार रखना चाहिए उसे मानवता के प्रति नये दृष्टिकोण और मानवीय मूल्यों से युक्त एक नये समाज के निर्माण के प्रति सतत् प्रयत्नशील रहना चाहिए, जिससे मानवीय पूर्णता के प्रति उसकी निष्ठा बनी रहे। गांधी ने मानव प्रकृति के खुलेपन की वकालत की है और उसकी विविधताओं तथा क्षमताओं का मूल्यांकन किया है। गांधी के दृष्टिकोण में व्यक्ति में समाज को रूपान्तरित करने की क्षमता निहित है। वह अंतिम वास्तविक को समझने की शक्ति रखता है।
भारतीय समाज में व्यक्ति का अस्तित्व समग्रता के संबंध में आंका जाता है। जिसमें उसे साधना के माध्यम से स्वरूपान्तरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास करना पड़ता है। व्यक्ति का मूल अस्तित्व तर्कों से परे हैं। उसे युक्तिसंगत खोजबीन के माध्यम से नहीं समझा जा सकता। गांधी के विचार में सभी मानवीय संबंध ईश्वरीय इच्छा पर आधारित होते है। उनके लिए मानव का होना ही नैतिक होना है। नैतिक मनुष्य के लिए गांधी त्याग की भावना पर विशेष बल देते हैं। क्योंकि उनका मानना है कि यदि मनुष्य एक नैतिक प्राणी है तो उसे उपभोग की वस्तुओं के परिग्रह और सम्पति के नैतिक प्रयोजन पर भी विचार करना चाहिए। जो वस्तु अधिकांश लोगों को उपलब्ध नहीं है उस पर भोग करने से हमें दृढतापूर्वक इनकार कर देना चाहिए। अपनी जरूरत से अधिक का संग्रह एक प्रकार की चोरी है क्योंकि वह किसी अन्य को उस वस्तु से वचित रखना है। अतः यहां गांधी मानव के सही उपभोग के अधिकार की बात करते हैं जो एक साथ सारी मानव जाति के अपरिग्रह के सिद्धांत की वकालत करता है। गांधी जब अपरिग्रह की बात करते हैं तो उस का तात्पर्य स्वेच्छापूर्वक त्याग से है, गरीबी के जीवन से नहीं। त्याग की भावना मानव जीवन की सबसे बड़ी विशेषता है जिसके इर्द गिर्द मानव के सभी अधिकार परिधि करते हैं। त्याग के संबंध में टैगोर के तीन कथनों का स्मरण यहां प्रासंगिक होगा। उनका कहना है, ‘हमारी आत्मा की सच्ची कामना होती है पूर्णतः अपरिग्रह’ ‘त्याग की भावना मानव आत्मा की सबसे गहरी वास्तविकता है’ और मानव अपनी आत्मा को सच्चे अर्थों में तभी पहचानता है जब वह अपने विषय-भोगों से ऊपर उठ जाता है, और शाश्वत जीवन के पथ पर मानव की प्रगति त्याग की श्रृंखला के जरिये ही होती है।’
प्रसिद्ध विचारक हुमायूं कबीर मानव के सभी अधिकारों को चार बुनियादी अधिकारों में रखते हैं जिसके आधार पर अन्य सब अधिकार निर्भर हैः-
1. व्यक्ति को पूर्ण स्वस्थ्य और कार्यकुशल रखने के लिए आवश्यक भोजन और वस्त्र,
2. केवल ऋतुओं की कठोरता से संरक्षण की दृष्टि से ही नहीं बल्कि आराम और अवकाश के उपभोग के लिए जरूरी स्थान को भी दृष्टि में रखते हुए आवश्यक आवास,
3. प्रसुप्त क्षमताओं को विकसित करने तथा व्यक्ति को समाज के एक प्रभावशाली सदस्य की तरह कार्य करने के योग्य बनाने के लिए आवश्यक शिक्षा,
4. रोगों को रोकने और ठीक करने तथा व्यक्ति और समुदाय के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक चिकित्सा और सफाई की सेवाएं,
प्रो. हुमायंू कबीर के बुनियादी अधिकारों की अवधारणा गांधी कर्तव्यों की परिणती के केन्द्र में हैं। गांधी का विचार था कि ‘व्यक्ति में दो अलग-अलग पैतृत गुण निहित होते हैं, जिन्हें वह उतराधिकार में प्राप्त करता है। प्रथम गुण जैविकीय है और द्वितीय सांस्कृतिक। जैविकीय गुण-धारक के रूप में व्यक्ति एक पशु है और सांस्कृतिक गुण धारक के रूप में व्यक्ति संस्कृति का संवाहक है।’ संस्कृतिक के संवाहक के रूप में व्यक्ति कभी किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करता। क्योंकि गांधी ने व्यक्ति के निम्नवत एवं उच्चतम गुणों के संदर्भ में अपने अलग-अलग वक्तव्यों से प्रकाश डाला है। गांधी के कथनों में व्यक्ति की प्रकृति में राजनीतिक कर्तव्य के आधार निहित हैं जिन्हें नैतिक, युक्तिसंगत और सामाजिक प्राणी के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। गांधी ने ‘‘राजनीति और नीतिशास्त्र के बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची। क्योंकि, मनुष्य का दैनन्दिन जीवन उस के आध्यात्मिक स्वरूप से कभी अलग नहीं किया जा सकता। जिसका अर्थ होगा राजनीति के प्रेरक और संचालक के रूप में ‘प्रेम के नियम’ की, धर्म की स्थापना। गांधी के इसी नीतिशास्त्र की परिधि में मनुष्य के अधिकार, कर्तव्य के रूप में समाहित है।
गांधी मानव कें अधिकारों की रक्षा हेतु राज्य की सत्ता को नकारते है। राज्य को गांधी ने संगठित हिंसा कहा। तो उस के पीछे कारण यही है कि राज्य और उस की कारक अर्थ-व्यवस्था दोनों ही ‘शक्ति के नियम’ के अनुसार सक्रिय रहे हैं। वास्तविक रूप में यदि प्रेम की अवधारण-जिसे गांधी अहिंसा कहते है- से राज्य की सत्ता संचालित होती तो व्यक्ति अपने अधिकारों की बजाय कर्तव्यों की लड़ाई लड़ता, क्योंकि अहिंसा के सिद्धांत से संचालित सत्ता अधिकारों को व्यक्ति के कर्तव्यों में ही निहित कर देती है। आधुनिक राज्य की सत्ता यदि मानव के अधिकारों की रक्षाकर पाती तो सम्भवतः अधिकारों का हनन नहीं होता। अतः मानव अधिकारों की रक्षा हेतु बने ‘‘कानून की भूमिका केवल एक अतिरिक्त दबाव बनाने की ही हो सकती है अथवा अधिक से अधिक दण्ड देने की। लेकिन केवल दण्ड भी सामाजिक मनोवृत्तियों को बदलने का सामथ्र्य नहीं रखता। यदि ऐसा होता तो अधिकांश सामाजिक अपराध मिट चुके होते। यह आश्चर्यजनक है कि ऐसी मनोवृत्तियों से संचालित घटनाओं को अंजाम देने वाले लोगों को कानून की दृष्टि से अपराधी घोषित कर दिए जाने के बावजूद संबंधित समाजों में उन की प्रतिष्ठा न केवल बनी रहती है, बल्कि उन्हें संस्कृति या जातीय परंपरा अथवा गौरव के रक्षक होने की हैसियत प्राप्त हो जाती है।
राज्य सत्ता के इस आधुनिकीकरण सिद्धांत के बाद गांधी के कर्तव्य अधिकारों की मांग अपनी प्रबल दावेदारी दर्ज करती है जहां कानून जैसी किसी दबाव की जरूरत हमेशा गौण रहती है क्योंकि, गांधी कानून की जगह सत्याग्रह के प्राकृतिक नियम की वकालत करते हैं। ‘सत्याग्रह’ शब्द मूलतः संस्कृति के ‘सत्य’ और ‘आग्रह’ शब्दों का समिश्रित रूप है। सत् का तात्पर्य और आग्रह का तात्पर्य वृत रहना, द्वढ रहना और अटल रहना है। सत्याग्रह शब्द का अर्थ सत्य के लिए वृत रहना, सत्य के लिए अडिग रहना और सत्य के लिए कटिबद्व रहनाहै। अर्थात् सत्य के लिए प्रतिरोध करना, जिसमें व्यक्ति स्वयं को कष्ट देकर सामने वाले व्यक्ति को सत्य से अवगत करवाता है। जिसकी अनुपस्थिति में व्यक्ति दूसरों के अधिकारों में हस्तक्षेप शुरू कर देता है अतःसत्याग्रह व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के प्रति कराए गए बोध का सर्वव्यापी रूपहै। जिसे अंग्रेजी में ‘पैसिव रेजिस्टेन्स’ कहते हैं।
गांधी द्वारा सत्याग्रह को दो अश्रित बिन्दुओं की प्रतिपूर्ति हेतु प्रयुक्त किया गया था। नकारात्मक रूप से यह व्यक्ति पर बुराईयों को दूर करने के लिए कर्तव्य निष्ठा की वरीयता प्रतिरोपित करता था और सकारात्मक रूप से यह व्यक्ति को सामुदायिक सेवा के लिए कार्य करने हेतु अधिकार प्रेरित करता था।
गांधी की स्वदेशी अवधारणा मानवीय अधिकारों की पड़ताल करती है, स्वदेशी का अर्थ है-स्थानीय संसाधनों का स्थनीय तकनीक से, स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति। गांधी की यह धारणा व्यक्ति को अधिकारों से परिचित करवाती है, वहीं उन्हें स्थानीय कर्तव्यों के प्रति भी कर्तव्य का अहसास कराती है जिसके चलते व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति, अन्य व्यक्तिओं के अधिकारों में हस्तक्षेप न करके- करता है। गांधी के स्वदेशी-व्रत के पीछे बड़ी ही गूढ़ क्रांति का बीच छिपा हुआ है। गांधी के सभी मानवाधिकार एवं कर्तव्यों का नैतिक रहस्य इसमें है।
गांधी के अनुसार ‘स्वदेशी व्रत का पालन करने वाला हमेशा अपने आस-पास निरीक्षण करेगा और जहां-जहां पड़ौसी की सेवा की जा सकती है, अर्थात् जहां-जहां उनके हाथ का तैयार किया हुआ आवश्यक माल होगा, वहां-वहां वह दूसरा छोड़कर उसे लेगा, फिर चाहे स्वदेशी वस्तु पहले मंहगी और कम दर्जे की ही क्यों न हो। जो वस्तु स्वदेशी में नहीं बनती अथवा महाकष्ट से बन सकती है, वह परदेशी के द्वेष के कारण अपने देश में बनाने बैठ जाए तो उसमें स्वदेशी धर्म नहीं है। स्वदेशी धर्म पालन करने वाला परदेशी का भी द्वेषी नहीं है। यह पे्रम में से अहिंसा में से पैदा हुआ सुंदर धर्म है-और इसीलिए स्वदेशी धर्म जानने वाला अपने कुएं में डूबेगा नहीं। गांधी की स्वदेशी अवधारणा मानव को उसके अधिकार दिलाती हैं जो कर्तव्य रूप में हैं। गांधी के अनुसार स्वदेशी तकनीक वह तकनीक है,जिसके चलते स्थानीय लोगों के सभी कर्तव्य तथा अधिकार उनके हाथ में रहेंगे। स्वदेशी में मानव के किसी अधिकार का हनन नहीं होगा क्योंकि, उनके सभी अधिकारों का रक्षक स्वय मानव है। अतः अपने कर्तव्य का पालन प्रत्येक व्यक्ति को निर्भयतापूर्वक करना चाहिए। गांधी ने कहा है कि ‘अपने कर्तव्यों का पालन करते समय दुनिया की राय की चिंता नहीं करनी चाहिए। मेरा यह सदैव मत रहा है कि हर आदमी वहीं करे जिसे वह ठीक समझता है चाहे दूसरों की नजर में वह गलत ही क्यों न हो और अनुभव कहता है कि यही सही रास्ता है। मैं यह स्वीकार करता हूं कि अच्छा-बुरा पहचानने में मनुष्य से गलती हो सकती है,लेकिन वह अनजाने में की गई गलती द्वारा बुराई को पहचान लेता है। दूसरी ओर जनमत के डर के मारे जब कोई अपने अंदर के प्रकाश को ग्रहण नहीं करेगा तो उसे अच्छे-बुरे की कभी पहचान नहीं हो सकती और अन्ततोगत्वा उसमें इन दोनों में भेद कर पहचानने की भी सामथ्र्य नहीं रह जायेगी।’
इस प्रकार यदि व्यक्ति अपने कर्तव्यों का उचित ढंग से पालन करने लगेगा। तो फिर कभी उसके सामने अधिकार की समस्या खड़ी ही न होगी। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को वही कार्य करना चाहिए जो उसके लिए उचित हो और जो उसकी आत्मा कहे। इस प्रकार यदि व्यक्ति अपनी आत्मा के, अपने विवके के अनुसार कार्य करेगा तो उसे कभी भी परस्पर विरोधी कर्तव्यों में से किसका पालन करे किसका न करे, इसकी परेशानी न उठानी पडे़गी। गांधी के अनुसार कर्तव्यह निर्णय की एक कसौटी ऐसे कर्तव्य होने चाहिए। जिससे मनुष्य का पुननिर्माण हो सके।
‘आज सभी झगड़ों और संघर्षों-कष्टों और दूखों का मूल कारण यही है कि मनुष्य ने अपनी मानवता खो दी है।’ अतः प्रत्येक समाज के प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह मानवता के निर्माण की प्रक्रिया में अपना योगदान दे। व्यक्ति को कोई भी व्यक्तिगत या सामाजिक कार्य को पूरा करने से पहले यह जरूर जान लेना चाहिए कि उसके उद्देश्य समाज में मानवता निर्माण के इतर तो नहीं है। क्यांेकि गांधी यह मानते हैं कि व्यक्ति के अधिकारों के लिए सबसे जरूरी साधन व्यक्ति के नैतिक अनुशासन का होना है। अतः प्रत्येक व्यक्ति को नैतिक अनुशासन का पालन करना चाहिए।
व्यक्ति को अन्याय का प्रतिकार अवश्य करना चाहिए। अन्याय का प्रतिकार करना व्यक्ति का मौलिक कर्तव्य है। अन्याय को सहना गांधी के मायने में कायरता है और गांधी कायरता से हिंसा को श्रेष्ठ करार देते हैं। जहां व्यक्ति कम से कम अपने प्रति हुए अन्याय का सामना तो कर रहा है अतः प्रत्येक स्थिति में अन्याय का विरोध व्यक्ति का प्रथम कर्तव्य बना जाता है।
प्रत्येक कर्तव्य पालन की प्रक्रिया के गर्भ में व्यक्ति के अधिकार रहते हैं,वहीं प्रत्येक अधिकार का प्रयोग व्यक्ति को कर्तव्य पूर्ण करना चाहिए। ताकि सामाजिक स्थिति में किसी अन्य के अधिकारों को व्यक्ति ठेस न पहुचाऐं। इस तरह यह अधिकार व कर्तव्य का चक्र चलता ही रहता है। गांधी के अनुसार ‘मनुष्य का अधिकार केवल साधनों पर है साध्य पर नहीं, वह प्रयत्न कर सकता है, लेकिन परिणाम उसके हाथ की बात नहीं, इसके अतिरिक्त साधन ही विकसित होकर साध्य बन जाते है।’
गांधी के शब्दों में ‘अपने कर्तव्य के पालन का अधिकार ही एक मात्र ऐसा मूल्यवान अधिकार है। जिसके लिए मनुष्य जी भी सकता है और मर भी सकता है। उसमें उचित अधिकारों का समावेश है। व्यक्ति को अधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है। यदि व्यक्ति कर्तव्य पालन की क्षमता प्राप्त कर ले तो उसे अधिकार अपने आप प्राप्त हो जाते हैं…….. गांधी ‘अधिकार’ शब्द का प्रयोग अधिक व्यापक अर्थ में सामाजिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में करते हैं। इसका प्रयोग वे राज्य के संबंध में और शारीरिक शक्ति के संबंध में भी करते हैं। एक अवसर पर उन्होंने कहा कि ‘प्रत्येक व्यक्ति को झूठ बोलने का और गुण्डों की तरह व्यवहार करने का अधिकार है किन्तु इस प्रकार के अधिकार का प्रयोग समाज और प्रयोग करने वाले दोनों के लिए ही हानिकारक है।’
चूंकि,समाज में व्यक्ति का अस्तित्व समग्रता के संबंध में आंका जाता है। जिसमें उसे साधन के माध्यम से स्वरूपान्तरण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास करना पड़ता है। व्यक्ति का मूल अस्तित्व तर्कों से परे है। उसे युक्तिसंगत खोजबीन के माध्यम से नहीं समझा जा सकता। अतः व्यक्ति के लिए गांधी दृष्टि में अधिकारों की जगह कर्तवय केन्द्र में होते हैं।
हम ऐसे समुदायों की रचना करें, जहां सभी मानव अपने-अपने कर्तव्यों से प्रेरित होते हों। यह अहसास वह चीज है जिसे हासिल करने की आकांक्षा हमें हर दिल में जगानी है। गांधी के विचार व आदर्श शाश्वत है। इन्हीं मार्ग पर चलकर हम आज एक आदर्श समाज की रचना करने में सफल हो सकते हैं। क्योंकि ‘हम उसी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था को मानवीय कह सकते हैं जो मनुष्य के अर्थात् चेतना के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण की भूमिका निभा सके। दूसरे शब्दों में, मानवाधिकारों को पुष्ट करने वाली व्यवस्था का आधार सकारात्मक अर्थों में अहिंसा को ही स्वीकार करना होगा। तभी मनुष्य एक चेतना प्राणी होने के नाते अपने उत्तरदायित्व को निभा पायेगा। यदि वह इस उत्तरदायित्व को नहीं निभाता है तो जैविक स्तर पर वह मनुष्य कहला सकता है, लेकिन सांस्कृतिक और मूल्यगत स्तर पर नहीं। विकास की प्रक्रिया बड़ी धीमी जटिल और भटकावों से भरी है। यदि आज हमारी व्यवस्था या हमारी प्रवृति इस दिशा की ओर उन्मुख नहीं है तो यही मानना होगा कि वह मानवीय इतिहास की एक और भटकन है।’

-मनहर चरण

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