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मीडिया: समाज और महिलाएं

सरोकार
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समाज में संतुलन की स्थिति को सबसे आदर्श माना जाता है। हमारे समाज में सामाजिक संतुलन की अपनी विशेष महत्ता होती है इसी क्रम में महिला और पुरूष का सामाजिक स्थान और दर्जे का संतुलन अतिमहत्वपूर्ण होता है। समाज ने अलग-अलग स्थान विशेष पर सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक वैचारिक तथा अवसर के स्तर पर महिला और पुरूष की सामाजिक संरचना के लिए गढ़ा, जो निरंतर चलता रहे तथा उनमें धीरे-धीरे परिवर्तन होता रहे। किन्तु आधुनिक समाज में स्त्रियों की सामाजिक दशा को उत्तोरोत्तर प्रगतिशील और दृढ़ता लाने के लिए अनेक अधिकारों के साथ संरचित किया गया और उन्हें समानता का अधिकार, दहेज निषेध, सती निषेध, विधवा पनुर्विवाह, महिला कल्याण की विभिन्न नीतियां, कामकाजी महिलाओं के अधिकार तथा शोषण के विरूद्ध अधिकार प्रदान किए गये।
‘भारत में संविधान के मूल कत्र्तव्यों में अनुच्छेद 51(क)(ड.) के अंतर्गत भी’लोगों में समरसता और समान भ्रातत्व की भावना का निर्माण करें’जो सभी प्रकार के भेदभाव से परे हो तथा ‘‘ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के विरूद्ध हैं।’इस परिप्रेक्ष्य में महिला उत्थान की भावना को संवैधानिक पोषण देने का प्रयास किया है। यही नहीं अनुच्छेद 15 में यह भी निर्धारित किया गया कि, लिंग के आधार पर किसी भी प्रकार का भेदभाव निषेध होगा।’इस उददेश्य की प्रतिपूर्ति हेतु भारत में स्त्रियों के लिए समानता के अधिकार को सुरक्षित रखने के कानून का निमार्ण किया गया। भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्रियों को देवी ओहदा तो कहीं-कहीं उसे दोयाम दर्जे के हाशिए पे धकेल दिया गया। अब महिलाओं के प्रति दोयाम दर्जे के व्यवहार का सामाजीकरण कुछ इस तरह प्रकट हो चुका है कि, महिलाएं मुख्य धारा में जुड़ने के बावजूद, सैकड़ों वर्षों से चली आ रही विपरीत स्थितियों से अपने आप को निकालने में असमर्थ महसूस कर रही हैं।
‘सूचना और संचार के युग में उपभोक्तावादी दृष्टि ने स्त्रियों के पात्र व चरित्र को विसंगत बना दिया है। इसमें लिंग आधारित भेद को किसी-न-किसी रूप में अवश्य पाया जाता है। जिसको समाज के एक विशाल वर्ग समूह द्वारा थोपा गया। इस बारे में एलिसन जैग्गर आदि विचारकों का मत है कि ‘सेक्स और जेंडर एक-दूसरे के साथ द्वंढ़ात्मक और अविभाज्य रूप से संबंधित है।’वहीं ‘‘टेलीविजन प्रसारण के विभिन्न कार्यक्रमों में स्त्री-चरित्र को हास्य व अंग प्रदर्शन से अश्लील और फूहड़ बना दिया गया है। यही नहीं बहुत तेजी से समाज में स्त्रियों के प्रति व्यवहार में गंभीरता का हा्रस होता जा रहा है। अगर कहा जाए तो भाषा, शब्दों, बातों व्यवहार आदि में महिलाओं के प्रति दोयम दर्जे का सामाजीकरण, इन कार्यक्रमों (कॉमेडी शो) की देन हैं जो एक अपसंस्कृति का निर्माण, आगामी समाज के समक्ष महिला उत्थान की कड़ी को मजबूत बनाने में बाधक सिद्ध हो रही हैं। स्त्री उत्थान के प्रति आवाज उठाने वाले संगठन भी, महिलाओं के प्रति स्वथ्य वातावरण का निर्माण बनाने की सफल मुहिम के प्रयासों में जुझ रहे हैं। ’’आज कॉमेडी-शो, फिल्म व विज्ञापनों को व्यावसायिक दृष्टि से दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। इनमें अधिकांश चैनल व समाचार पत्र-पत्रिकाएं टी.आर.पी और सर्कुलेशन की दौड़ में आगे आने तथा प्रतिस्पद्र्धा की दौड़ में बने रहने के लिए महिला/नारी देह को शामिल कर रहे हैं। बात हम टी.आर.पी पर प्रसारित कॉमेडी-शो की करें तो ये महिला विरोधी साबित हो रहे हैं क्योंकि इनकी भाषा, भावगिमाएं और विषय-वस्तु में ऐसे अश्लील और फूहड़ तरीके से स्त्री विरोधी स्वर पैदा करते हैं। जिसके परिणामस्वरूप समाज में नारी अस्मिता की नयी पीढ़ी में छीटाकसी, अभद्रता का सामाजीकरण होना निश्चित तय लगता है। वरिष्ठ पत्रकार बी.जी. वर्गोज मानते हैं कि ‘‘यह चलन खतरनाक है। टेलीविजन कॉमेडी शो में इन दिनों गलत काम दिखाये जा रहे हैं।’बतौर महिला स्वयं बरखा दत्त का कहना है कि हिंदी चैनलों में बेहुदे कार्यक्रमों को, खबरों तक में शामिल कर लिया जाता है।
सभ्यता के दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह शो कितने संवेदनशील हैं, इस पर किसी का ध्यान केंद्रित नहीं हो रहा है। जिसके दूरगामी परिणाम स्त्रियों के प्रति बडे़ खतरनाक होगें। आज ये चैनल इस बात की होड़ में है कि कौन कितना नीचे गिर सकता है? कौन किस प्रकार अश्लीलता ठाल बनाकर चलन में बना रह सकता है? टी.आर.पी. की अंधी दौड़ में स्त्री अस्मिता को लगातार कुचलने का प्रयास जारी है। इसी कारण के चलते इस प्रकार के कार्यक्रमों की बाढ़-सी आ रही है। कार्यक्रमों में स्त्रियों के चरित्र को विकृत करने के पीछे भी पुरूष मानसिकता का हाथ होता है जो आज के बाजारू और नवनिर्मित भूमंड़लीयकृत समाज के द्वारा संचालित होता है। वहीं पूंजीवाद और पितृसत्ता एक-दूसरे को मजबूती प्रदान करते हैं और मीडिया इन दोनों का संवर्धन करने का कार्य करती है।
वर्तमान कार्यक्रमों कॉमेडी शो, स्टेज शो आदि में विभिन्न दूषित मानसिकता द्वारा स्त्रियों के प्रति समाज में मूल नारी उत्थान को रोका जा रहा है। देखा जाये तो निर्माताओं ने नारी चरित्र को व्यापार का हिस्सा बना दिया है। कार्यक्रमों में अधिकाधिक पूंजी लगायी जा रही है और फिर स्त्रियों के प्रति अवमानना को मनोरंजन के साथ पेश किया जाता है। यह बात सही है कि यहां महिलाओं को अधिक मात्रा में पैसा भी दिया जाता है, लेकिन यह सब भी उस तरह से हो रहा है, जिस तरह पूंजीपति अतिरिक्त मूल्य के दोहन के जरिये मजदूरों का शोषण करता है।’
आज हर क्षण बदल रहे सामाजिक परिवेश में, सामाजिक मान्यताएं तथा सामाजिक सरोकार हर पल बदल रहे हैं। सामाजिक मान्यताएं धराशायी हो रही हैं। नये मूल्यों का सृजन इस समाज को एक नए विश्व समाज में बदल रहा है तथा एक नए सामाजिक परिवेश का नया प्रारूप हमारे सामने है। जिसमें हम अपनी टूटती हुई परंपराओं का आईना देख रहे हैं। इसी को गौर करते हुए टेलीविजन प्रसारण के साथ-साथ संचार के अन्य माध्यमों ने अपने सामाजिक मूल्यों में अमूलचूल बदलाव किये हैं जिससे समाज पूर्ण रूप से इस बदलाव के प्रभाव में है। इसमें समाचार पत्र-पत्रिकाओं एवं इंटरनेट ने महिला छवि को सबसे अधिक दूषित किया है जहां समाचार पत्रों में विज्ञापन के नाम पर अश्लील चित्रों के साथ महिलाओं का चित्रण किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर इंटरनेट पर पोर्न चित्रों का बोलबाला है। यह स्त्रियों की छवि से खिलवाड़ करने का माध्यम बनता जा रहा है। मीडिया जहां एक ओर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की पुरजोर वकालत करता है वही दूसरी ओर समाज में स्त्री-पुरूष दो वर्ग का विभाजन की रेखा खीचने का कार्य भी कर रहा है। भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त आरक्षण के अंतर्गत अब महिलाओं को आरक्षण बिल संसद द्वारा पारित किया जा चुका है जिसे क्या सर्वमान्य तरीके से मीडिया ने उन महिलाओं तक पहुंचाने की कोशिश की, शायद नहीं। जिन्हें वास्तव में आरक्षण की आवश्यकता है। मीडिया में चाहे वह प्रसारण हो या प्रकाशित, सभी माध्यमों में नारी चरित्र दोयम दर्जे का प्रस्तुत किया जा रहा है। सीमेंट के विज्ञापन में अर्द्ध नग्न महिला का चित्र हो या साबुनों के विज्ञापनों में नाममात्र के कपड़े पहने मॉडल, वही हाल फिल्मों का है। आज एक ओर मुन्नी बदनाम हो रही है तो दूसरी ओर शीला की जवानी जैसे फूहड़ गीत और उसका चित्रण। समाज द्वारा महिला को सदैव ही दोयम दर्जे पर रखा गया है। जिसे आज मीडिया ने अपने कार्यक्रमों (कॉमेडी-शो, स्टेज शो) के द्वारा फूहड़ व अश्लील बना दिया है तो दूसरी ओर विज्ञापन के नाम पर समाचार पत्र-पत्रिकाएं सार्थक करने में लगी हुई हैं। उपभोक्तावादी संस्कृति और पूंजीवादी वर्ग मीडिया के द्वारा पुरूष व महिला नामक दो समाज का निर्माण बेहद कुटीलता व व्यावसायिक स्वरूप देकर कर रहे हैं जिससे मीडिया दोयम दर्जे का होता जा रहा है।

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